गुरुवार, 29 मई 2014

बंद दरवाज़े खोलकर  बाहर जब निकलतीं हैं स्त्रियां 
 उन्हें मालूम होता है कि जोखिम बहुत हैं
 पराजय ही अधिक  है जय कम है उनके हिस्से  में 
. मगर सारे भय बटोरकर सीने में वे जुटातीं हैं साहस।
 चल पड़तीं हैं  पहाड़ों की ओर।
. क्योंकि वे जानतीं हैं कि समतल उन्होंने ही किया है मैदानों को 
,और तब वहीँ से फूटे हैं  रास्ते।  वे जानतीं हैं कि वे रास्ते झरनों की तरह नहीं हैं 
 न ही चरागाहों की तरह। वे नियति पर नहीं करतीं हैं भरोसा
उन्हें मालूम है कि रोटी गोल बन जाती है और
महकती है  भूख भर 
 दाल में नमक भर जब वे जी रहीं होतीं हैं। 
 उनके जीने की बात पर 
 कभी कभी चाँद चलता है साथ 
थोड़ा सा  सूरज भी  मुठ्ठी भर तारे होते हैं तो 
कभी  कुछ   नहीं।।।
लेकिन  उन्हें पार करनी है अँधेरे की  वह नदी
जिसे पार करने के बाद रोटी गोल बने या न बने  , दाल में नमक 
ठीक हो ज्यादा या दहेज़ कम हो  नाक कट रही हो या बच जाए  यह  सब 
उनके जीने के लिए  शर्त नहीं होती  
वे दुर्गम पर  दिखायी देने लगतीं हैं लहलहाती  नदी की तरह। 
मुसाफिर को  रास्तों  की तरह। 

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

पहले तुमने ही शुरू किया रगडा .
मैंने नहीं .
कहाँ है मेरे हिस्से की ज़मीन
कभी
मैंने यह नहीं कहा .
लेकिन तुम बताओ
 तुला के दोनों पलड़े बराबर हैं तो
 मैं पड़
क्यों रही  हूँ हलकी . 
अपने एक पाँव पर  मैं  सदियों से खडी हूँ और
तुम उस एक पाँव को भी उखाड़ने पर तुले हो.
 मेरे एक पाव को ज़मीन से हटाकर क्या 
कुछ और खोना है तुम्हें
जानते तक नहीं  कि हो कितने  अज्ञानी .
स्त्री का एक पाँव जो ज़मीन से उठ गया है
दरअसल वह तुम्हारा ही  पाँव  तो है .
ठौर नहीं है तुम्हारी .
वह  दूसरा पाँव जो हट जाए  .
इसलिए जब बात इतनी बढ़ गयी है
अब उसका ठिकाना  बिना रगड़े के उसे दे दो .
वह तुम्हारे लिए भी  बनाएगी आशियाना
क्योंकि सारी  शक्तियाँ बटोर ली हैं तुमने
सारे फैसले भी
कर पाओगे क्या एक  बड़ा  फैसला
कुछ बाकी है  तुममें तो इमानदारी से छोडो ये रगडा और
उसके हिस्से की दुनिया उसे लौटा दो .
इसके पहले कि वह उठा ले कदम .
समय अब भी है सोचने के लिए .
 तुम उसे  सौपो तो एक बार
  ये अपना घुटता  जहान .

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

भवरी जैसे कुछ और भवंर


अकेली चिड़िया को जंगल में 
उड़ने की ख्वाहिश हुई 
पर्वत श्रृंखलाओं को
घर की दीवारों पर टांगने की ख्वाहिश हुई ..
गहन गह्वरों से उसे सपनों की आहट हुई !
खोह अन्धेरें पत्थर चालें 
फिसलन और 
काई की बातें उसे मालूम नहीं थीं .
हिंसक कांटें फूलों में घातें 
उसे 
मालूम नहीं थे !
दाना चुगती मन मन उडती 
जंगल को अपना बैठी मान
उसे जंगल के राज़ मालूम थे 
जंगल की शर्तें मालूम नहीं थी !
रंगीन चिड़िया जंगल की किसी डाल पर
बिना किसी हथियार के एक दिन मारी गयी !
जंगल के राज़ फिर जंगल में !
और चिड़िया की बस इतनी सी बात थी
उसे पर्वत श्रृंखलाओं को
घर की दीवारों पर टांगने की ख्वाहिश हुई !

रविवार, 24 जुलाई 2011


बेटी और पिता 
पिता के जाने काफी दिनों बाद तक
 मैंने  उनकी तस्वीर से भी मुंह फेरा .
. उनकी यादों से भी .
.उनकी हर बात से .नाराज़ थी मैं 
उनके बिना बताये जाने से !
.क्यों गए वे बिना कुछ कहे 
 बिना कुछ सुने 
 ठीक है कि उनकी उम्र हों चली  थी ..
 मगर मैंने तो उनके शतायु होने की की थी कामना
 बार बार  कहा  था कि पिता आप सौ बरस तक रहेंगे हमारे साथ .
.और हम आपको अपनी  अंगुली पकड़ा कर आप की मन मर्जी से  दुनिया दिखायेंगे .
. और आप  हमें ज़िंदगी के बारे में बताएँगे .. 
यही तो बार बार कहा था मैंने .
 फिर भी वे एक शाम अचानक सदा के लिए सोये 
.लाख जगाया  नहीं जागे 
..वे  बेटी कहते नहीं थकते थे 
तब मेरी क्यों एक न सुनी 
मैं टुहकती रही 
 उन्हें टेरती जब थक गयी 
तब नाराज़ हों गयी 
मुझे हंसाने जैसा कि वे करते थे  जब नहीं आये
मैंने उनकी तस्वीर तक से मुंह फेर लिया 
आकाश से उतरती बूंदों को जब  धरती  में खोते देखा 
गीली हुई धरती  पर
बीज को जब  अन्कुराते देखा तब लिखी यह कविता
 जबकि  वे बार बार यही तो कहते रहे थे कि
 अब तुम हों गयी हों    बड़ी
मैं उनके जाने के बाद  पहली बार बड़ी हुई 
उनके अक्षर -शब्दों  को जिया 
और उनकी तस्वीर पर अपनी बारिश सी हंसी के  फूल चढ़ाकर
  उनको अपनी नादानियों से मुक्त किया!
प्रज्ञा 

बुधवार, 2 मार्च 2011




                                                            पिता 
 मेरे बाबूजी गत 16 फरवरी को इस दुनिया से चले गए !श्री जगन्नाथ त्रिपाठी ११ फरवरी ,1930 को जन्मे  हिंदी    अंग्रेजी  भाषा के पंडित थे .भाषा
विज्ञान पर उनके लेख ,कवितायेँ गज़लें दोहे और
बहुत सा अनुवाद कार्य !उनका परिचय बहुत बड़ा है पर उन्होंने स्वयं को कभी प्रकाशित  नहीं किया !
उनके चरणों मेरी श्रद्धांजलि अर्पित है और उनको शब्दों की  यह माला अर्पित है  


पिता जब नहीं हैं लग रहा है
 वे  आसमान थे .
तब हमारे हिस्से में  छाँव  ही छांव  थी  
वे   धूप  के  नियंता  थे !
वे हमारे लिए नींद 
और  स्वप्न रचते थे .
छेनी हथौड़ी लिए समय के  अँधेरे  पर
 रोशनी की तस्वीर चुनते  थे .
पिता जब नहीं हैं लग रहा है
 वे बाजीगर थे .
स्याही और सरकंडे कोरे 
 पन्ने  जाने कहाँ से लाते थे  
 वे  हमारी पोथी और बस्ता थे.
लेकिन पिता  जाने क्यों 
 छुपकर रोते थे !
 आदि मानव की तरह या
 आसमान की तरह 
.हम भी  सदियों तक रोयेंगे
 उल्कापात में टूटी किसी  टहनी की तरह !

शनिवार, 15 जनवरी 2011

उमचन सी कसी जाती है

.भिगोकर बुनी जाती है

जितना हों सके खीचकर तानकर

जाती है बनायीं

उधेड़ दी जाती है आसानी से

औरत

बसखट की तरह होती है . .

कोई जगह नहीं मुकम्मल .

.कहीं भी जाती है .. बिछायी

.एक जगह से दूसरी जगह मांग ली जाती है

जिसकी होती है उसकी मर्जी बड़ी होती है

..दालान में ओसार में

दुआर पर खलिहान में मडई में

घर में कहीं भी पड़ी होती है .

धूप से आंधी पानी से जाती है बचाई

चलेगा बसखट के बिना कैसे काम

नींद कहाँ आएगी कैसे आयेंगे सपने

.जितनी पुरानी

उतनी नरम होती है

औरत बसखट की तरह होती है

आसान

हर बार खोली और बुनी जाती है

उमची जाती है कसी जाती है

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

आँगन से होकर  भोर निकल आई जैसे  दुआर तक !
तुम भी क्यों नहीं   निकल आती हो  उसी तरह
और  किरणों की  तरह   करती हो  सुनहरी बारिश जिसमें दब जाए धूल गर्द जो परम्पराओं के  जुलूस के साथ उठती रही है ! 
महावरों में रची  है जब  भाग्य रेखा.तब . क्यों नहीं उचक कर  तोड़ लेती हों तुम अपने हिस्से का   ब्रह्माण्ड
जो रोज़ तुम्हारे आँगन में  झांकता  है ! 
जब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों  दहलीज पर खड़े  रिवाज !
क्यों नहीं बो  लेती हो धान के साथ  समय जो
लहलहाए और   तुम्हारा हो !  
गावं के मुहाने से होकर निकल आओ और
अपने    आकाश गंगीय किनारों पर    .
रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें 
जब तुम रोप रही होगी अपने सपने  रजनी गंधl ,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले  आकाश में !
 नितांत अपने उगाये  समय में  !  .



रविवार, 5 सितंबर 2010

एक मुकम्‍मल पूरा जंगल

पोर पोर तक
मेरे भीतर

महक रहा है
जंगल !

छोड़कर स्त्री के लिए  बनाई गई 

सभ्यता 
जो
कहती है तुम मर जाओ  अपनी इज्जत के लिए 

बनाओ 
जगह
मुकम्मल !
दिन का
रात भर 
करो
हिसाब!
ढलको मेरे लिए 
कर के सब किनारे ...
मैं हो गयी हूँ पानी,
झरना,किरण,लाली,
 जंगली सुगंध 
समा गई हूँ  हरे वन में। बन गई हूँ  वनैली  !
मिट्टी

से पानी का 
एकालाप!
वृक्षों
का  सघन फैलाव!
आकाश का
धरती से निरभ्र
भाव!
रोशनी


का
चाँद से 
अविछिन्न
बहाव !
मैं हो   गयी हूँ
अपने स्व में 

पूरी
छोड़ तुम्हारी सभ्यता 
मैं एक  वन हूँ यानी स्त्री !!

सोमवार, 26 जुलाई 2010

आकाश से ज़मीन की रह गुजर में ...............

हम  खो गए
 जैसे रास्तों पर
 खो जाते हैं पावों के निशान  
 फिर   खो 
 जाती है 
 स्फूर्ति सारी ताक़त सारा रस कहीं .!. .
 जैसे खो जाते हैं बादल बरस कर 
और फिर आकाश से ज़मीन की रह गुजर में 
 खो जाती है बूँद !
 हम ऐसे खो गए जैसे खो जाती है बिजली
 चमक्रकर बस एक बार
 गरजकर रह जाती है
 कहीँ दूर खोहों में पहाड़ों में !
 हम खो गए जैसे खो जाती है
 आवाज़ पुकार  कर   थक कर हार  !
 मगर फिर भी थे कहीं अनाम गुमनाम अनाकार  
अरूप ही सही   हम हवा की तरह 
  शायद   नहीं थे 
 हम  सिर्फ निशान  भर, न ही बूँद भर.
 न तो बस बिजली
 न सिर्फ आवाज़ भर ...
 

शनिवार, 15 मई 2010

घर होती हैं औरते सराय होती हैं


 घर होती   हैं औरते 
                  सराय होती हैं. 
                  अन्नपूर्णा  होती हैं  
                 पुआल  होती है .
ओढना बिछौना सपना  
 मचान होती हैं .
 दुआर  दहलीज  तो  होती हैं 
 सन्नाटा सिवान होती हैं.
खलिहान और अन्न तो होती  हैं 
अक्सर  आसमान होती हैं .
कच्ची मिट्टी घर की भीत
  थूनी  थवार होती हैं .
 बारिशी  दिनों में ओरी से चूती हैं 
पोखर होती हैं सेवार होती हैं . 
अक्सर बंसवार होती हैं .
औरते बंदनवार होती हैं .
छूने पर छुई मुई तो होती है 
 तूफानों  में  
  खेवयिया होती हैं
 पतवार होती हैं.