सोमवार, 26 जुलाई 2010

आकाश से ज़मीन की रह गुजर में ...............

हम  खो गए
 जैसे रास्तों पर
 खो जाते हैं पावों के निशान  
 फिर   खो 
 जाती है 
 स्फूर्ति सारी ताक़त सारा रस कहीं .!. .
 जैसे खो जाते हैं बादल बरस कर 
और फिर आकाश से ज़मीन की रह गुजर में 
 खो जाती है बूँद !
 हम ऐसे खो गए जैसे खो जाती है बिजली
 चमक्रकर बस एक बार
 गरजकर रह जाती है
 कहीँ दूर खोहों में पहाड़ों में !
 हम खो गए जैसे खो जाती है
 आवाज़ पुकार  कर   थक कर हार  !
 मगर फिर भी थे कहीं अनाम गुमनाम अनाकार  
अरूप ही सही   हम हवा की तरह 
  शायद   नहीं थे 
 हम  सिर्फ निशान  भर, न ही बूँद भर.
 न तो बस बिजली
 न सिर्फ आवाज़ भर ...