हम खो गए
जैसे रास्तों पर
खो जाते हैं पावों के निशान
फिर खो
जाती है
स्फूर्ति सारी ताक़त सारा रस कहीं .!. .
जैसे खो जाते हैं बादल बरस कर
और फिर आकाश से ज़मीन की रह गुजर में
खो जाती है बूँद !
हम ऐसे खो गए जैसे खो जाती है बिजली
चमक्रकर बस एक बार
गरजकर रह जाती है
कहीँ दूर खोहों में पहाड़ों में !
हम खो गए जैसे खो जाती है
आवाज़ पुकार कर थक कर हार !
मगर फिर भी थे कहीं अनाम गुमनाम अनाकार
अरूप ही सही हम हवा की तरह
शायद नहीं थे
हम सिर्फ निशान भर, न ही बूँद भर.
न तो बस बिजली
न सिर्फ आवाज़ भर ...