गुरुवार, 24 सितंबर 2009



क्या है औरत की देह
कि
वे देह विमर्श करते हैं
क्या वे चाहते हैं
खोजना

कि
औरत को देह बनाने में जुटते हैं
क्या वे जानते नहीं
कि
पल रही है सृष्टि
उसी कि कोख में

कि उसके स्तन सींचते हैं प्राण
कि वह जब करती है प्यार
तो देखती
नहीं है
आगे पीछे
और होती है
सर्वहारा सी

और उसी कि देह पर
होता है विमर्श
क्या है उसकी देह
कि
जब तनती है
तो हों जाती है आकाश

और जब भीगती है
तो जैसे धरती
देती है तो ईश्वर सी
और मांगती है क्या !
वे थाह नहीं पाते हैं
और करने लगते हैं
विमर्श

लिखने लगते हैं शब्द
उसी देह पर

और पढ़ने लगते हैं देह बार बार
और फिर करते हैं
विमर्श!! विमर्श!! विमर्श !! और सिर्फ विमर्श !!



मंगलवार, 8 सितंबर 2009



फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त

कई टुकडे बन गए इबादत के
पढ़ते हुए
तुम्हारा ख़त

याद आई जाति बिरादरी
याद आया चूल्हा
छूत के डर से
छिपा एक कोने में
!

याद आई बाबा की
पीली जनेऊ

खींचती रेखा कलेजे में !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
याद आई
सिवान की थान
जहाँ जलता
पहला दिया हमारे ही घर से
!
याद आई झोपडी
तुम्हारी
जहाँ छीलते थे पिता
तुम्हारे
बांस
और बनाते थे खाली टोकरी !
याद

आया हमारा
भरा खेत खलिहान
!
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
घनी हों गई छांव नीम की
और
याद आई
गांव की बहती नदी

जिसमें डुबाये बैठते
हम

अपने अपने पाँव
!
और बहता
एक रंग पानी का!
फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त

कई टुकडे बन गए
इबादत के
और इबादत के कई टुकडे हुए!