बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

आँगन से होकर  भोर निकल आई जैसे  दुआर तक !
तुम भी क्यों नहीं   निकल आती हो  उसी तरह
और  किरणों की  तरह   करती हो  सुनहरी बारिश जिसमें दब जाए धूल गर्द जो परम्पराओं के  जुलूस के साथ उठती रही है ! 
महावरों में रची  है जब  भाग्य रेखा.तब . क्यों नहीं उचक कर  तोड़ लेती हों तुम अपने हिस्से का   ब्रह्माण्ड
जो रोज़ तुम्हारे आँगन में  झांकता  है ! 
जब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों  दहलीज पर खड़े  रिवाज !
क्यों नहीं बो  लेती हो धान के साथ  समय जो
लहलहाए और   तुम्हारा हो !  
गावं के मुहाने से होकर निकल आओ और
अपने    आकाश गंगीय किनारों पर    .
रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें 
जब तुम रोप रही होगी अपने सपने  रजनी गंधl ,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले  आकाश में !
 नितांत अपने उगाये  समय में  !  .



रविवार, 5 सितंबर 2010

एक मुकम्‍मल पूरा जंगल

पोर पोर तक
मेरे भीतर

महक रहा है
जंगल !

छोड़कर स्त्री के लिए  बनाई गई 

सभ्यता 
जो
कहती है तुम मर जाओ  अपनी इज्जत के लिए 

बनाओ 
जगह
मुकम्मल !
दिन का
रात भर 
करो
हिसाब!
ढलको मेरे लिए 
कर के सब किनारे ...
मैं हो गयी हूँ पानी,
झरना,किरण,लाली,
 जंगली सुगंध 
समा गई हूँ  हरे वन में। बन गई हूँ  वनैली  !
मिट्टी

से पानी का 
एकालाप!
वृक्षों
का  सघन फैलाव!
आकाश का
धरती से निरभ्र
भाव!
रोशनी


का
चाँद से 
अविछिन्न
बहाव !
मैं हो   गयी हूँ
अपने स्व में 

पूरी
छोड़ तुम्हारी सभ्यता 
मैं एक  वन हूँ यानी स्त्री !!

सोमवार, 26 जुलाई 2010

आकाश से ज़मीन की रह गुजर में ...............

हम  खो गए
 जैसे रास्तों पर
 खो जाते हैं पावों के निशान  
 फिर   खो 
 जाती है 
 स्फूर्ति सारी ताक़त सारा रस कहीं .!. .
 जैसे खो जाते हैं बादल बरस कर 
और फिर आकाश से ज़मीन की रह गुजर में 
 खो जाती है बूँद !
 हम ऐसे खो गए जैसे खो जाती है बिजली
 चमक्रकर बस एक बार
 गरजकर रह जाती है
 कहीँ दूर खोहों में पहाड़ों में !
 हम खो गए जैसे खो जाती है
 आवाज़ पुकार  कर   थक कर हार  !
 मगर फिर भी थे कहीं अनाम गुमनाम अनाकार  
अरूप ही सही   हम हवा की तरह 
  शायद   नहीं थे 
 हम  सिर्फ निशान  भर, न ही बूँद भर.
 न तो बस बिजली
 न सिर्फ आवाज़ भर ...
 

शनिवार, 15 मई 2010

घर होती हैं औरते सराय होती हैं


 घर होती   हैं औरते 
                  सराय होती हैं. 
                  अन्नपूर्णा  होती हैं  
                 पुआल  होती है .
ओढना बिछौना सपना  
 मचान होती हैं .
 दुआर  दहलीज  तो  होती हैं 
 सन्नाटा सिवान होती हैं.
खलिहान और अन्न तो होती  हैं 
अक्सर  आसमान होती हैं .
कच्ची मिट्टी घर की भीत
  थूनी  थवार होती हैं .
 बारिशी  दिनों में ओरी से चूती हैं 
पोखर होती हैं सेवार होती हैं . 
अक्सर बंसवार होती हैं .
औरते बंदनवार होती हैं .
छूने पर छुई मुई तो होती है 
 तूफानों  में  
  खेवयिया होती हैं
 पतवार होती हैं. 

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

निरपराध लोग

कुछ  लोग जब रचने  में लगे हैं 
कविता
करने में जुटे हैं प्रेम .

 मारे  गए
 
शस्त्रयुक्त
 बिखरने के लिए 
  प्रतिबद्ध
निरपराध लोग  !
जब
आज  लोग  उठाते हैं 
 अभिव्यक्तियों   के खतरे
.और उन खतरों पर होती है बहस!
 मारे गए कुछ लोगों की 

 अभिव्यक्तियां
कर गयीं हैं  काठ!
चुप 
क्यों है बहस !!
जो  मारे  गए वे
थे कौन 
क्यों  मर  गए ?
कौन सा जिला 

कौन सा देश
 कौन सा गावं था उनका !
कौन सा बचपन !

थे कौन से   स्वप्न  !
क्या   पूछा उन्होंने  या
  कि बताया
 कि कैसे गिरगिट
 चढ़ आया था कान तक
!
क्या
 कभी
पूछा उन्होंने
 ये प्रश्न संसद से
   सरकार क्यों  चैन से  सोती है
सुरक्षित बेदाग़  बेहिसाब ! !
 है  समर्थ  जो

 सहर्ष करती है  फैसले .
जीने मरने वालों पर

 सम भाव से !
 या क्या कभी पूछा हमने !!
   

मंगलवार, 9 मार्च 2010

 में  सूरज ने  दी  आंच

हमें  सूरज ने दी  आंच
..ओस ने सींचा
चाँदनी सहला गयी 
हमें बारिशें नहला गयी
आसमान   भी उतना ही
  रहा मेहरबान 
 हमें  नर्म धरती सहेजती रही
ठीक वैसे जैसे तुमको
..उसने  कुछ  तो नहीं छीना
  हक बराबर  दिया
 फिर तुमने क्यों की बंदरबाट
हमारा हिस्सा क्यों छीना .
हम तुम पर मेहरबान रहे
 जाने दो छोडो कह माफ़ किया
लेकिन यह क्या पानी सर
 के ऊपर से
अब तो   गुज़र गया
हर बार हमारी देह को लूटा
 अपने कोष का हिस्सा मान
तुमने क्यों  हक की मुहर लगायी.
खेत तुम्हारे और
हम
क्यों रहे अन्न की तरहछीजते !

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

तुम्हें जानती हूँ

तुम   अलस्सुबह   उठे   होगे
  तुम्हारी नींद  में क्या क्या
  हुआ होगा  !
जानती हूँ
  जल्दी  में भी   देर हुई होगी
  एक बाल तुम्हारा
दोनों भौहों के बीच  अटका   होगा
टाई  किस कसक के साथ   पहनी  होगी  !
 गुलाब को  टहनी
    तुम  ने
गहरी निगाहें डाल
 देखा होगा
  जानती हूँ   कि सुबह की चाय में
 मेरी महक होगी 
 वह  पूरे दिन   तुम्हें बेचैन रखेगी
  रात वह  तुम्हारी नींद में होगी
     और  तुम  चैन से सो पाओगे
  जुदा बात है
 कि  समंदर की तरह    छटपटाओगे
 और  बालुओं में घर  बनाओगे
 कहते हों कि ज़िन्दगी है  थोड़ी 
 लाख मैं कह दूँ कि थोडा हंस  लो भी
कहते हों   कि पहाड़ों से  होते हैं रस्ते !
  कहते हों कि शहर बड़ा हैं
पर सड़कें भी कम नहीं .!
   तुम   तलाशते हों सघन वन
यह भी
 कि तुमने  समय से  भिड़ने का
 मन बनाया था
  अब  कगार पर हों !
 कि तलछट में बचा है वक़्त  बहुत थोडा  और
  तुमने  कुछ  स्वप्न किये  थे  तय !
तुम्हें
जीना था उन्हें! 
 वही स्वप्न   खोजती हूँ
तुम्हें जानती हूँ इतना फिर भी
 तुम्हारे सपनों के मारे  जाने की वजहें  तलाशती हूँ  !!!

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

फूल पीले  मत बटोरो
   झरने दो !
 प्रियतम  की छुवन
 से खिले थे
 दहने दो !
प्रिय कब फिर आएंगे 
  कौन जानता है !
आएगा कब फिर   बसंत
  कौन जानता है !
अभी तो यादें  पुलकी   हैं 
साँसों में  साँसें  बहती   है !
 आग देह में जलती 
तभी सूरज भी तो 
मद्धिम है 
पीली है 
उसकी कांति
पूरी काली है   रात
 ताप  को जलने दो
फूल पीले  मत बटोरो
झरने दो !