सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

भवरी जैसे कुछ और भवंर


अकेली चिड़िया को जंगल में 
उड़ने की ख्वाहिश हुई 
पर्वत श्रृंखलाओं को
घर की दीवारों पर टांगने की ख्वाहिश हुई ..
गहन गह्वरों से उसे सपनों की आहट हुई !
खोह अन्धेरें पत्थर चालें 
फिसलन और 
काई की बातें उसे मालूम नहीं थीं .
हिंसक कांटें फूलों में घातें 
उसे 
मालूम नहीं थे !
दाना चुगती मन मन उडती 
जंगल को अपना बैठी मान
उसे जंगल के राज़ मालूम थे 
जंगल की शर्तें मालूम नहीं थी !
रंगीन चिड़िया जंगल की किसी डाल पर
बिना किसी हथियार के एक दिन मारी गयी !
जंगल के राज़ फिर जंगल में !
और चिड़िया की बस इतनी सी बात थी
उसे पर्वत श्रृंखलाओं को
घर की दीवारों पर टांगने की ख्वाहिश हुई !

रविवार, 24 जुलाई 2011


बेटी और पिता 
पिता के जाने काफी दिनों बाद तक
 मैंने  उनकी तस्वीर से भी मुंह फेरा .
. उनकी यादों से भी .
.उनकी हर बात से .नाराज़ थी मैं 
उनके बिना बताये जाने से !
.क्यों गए वे बिना कुछ कहे 
 बिना कुछ सुने 
 ठीक है कि उनकी उम्र हों चली  थी ..
 मगर मैंने तो उनके शतायु होने की की थी कामना
 बार बार  कहा  था कि पिता आप सौ बरस तक रहेंगे हमारे साथ .
.और हम आपको अपनी  अंगुली पकड़ा कर आप की मन मर्जी से  दुनिया दिखायेंगे .
. और आप  हमें ज़िंदगी के बारे में बताएँगे .. 
यही तो बार बार कहा था मैंने .
 फिर भी वे एक शाम अचानक सदा के लिए सोये 
.लाख जगाया  नहीं जागे 
..वे  बेटी कहते नहीं थकते थे 
तब मेरी क्यों एक न सुनी 
मैं टुहकती रही 
 उन्हें टेरती जब थक गयी 
तब नाराज़ हों गयी 
मुझे हंसाने जैसा कि वे करते थे  जब नहीं आये
मैंने उनकी तस्वीर तक से मुंह फेर लिया 
आकाश से उतरती बूंदों को जब  धरती  में खोते देखा 
गीली हुई धरती  पर
बीज को जब  अन्कुराते देखा तब लिखी यह कविता
 जबकि  वे बार बार यही तो कहते रहे थे कि
 अब तुम हों गयी हों    बड़ी
मैं उनके जाने के बाद  पहली बार बड़ी हुई 
उनके अक्षर -शब्दों  को जिया 
और उनकी तस्वीर पर अपनी बारिश सी हंसी के  फूल चढ़ाकर
  उनको अपनी नादानियों से मुक्त किया!
प्रज्ञा 

बुधवार, 2 मार्च 2011




                                                            पिता 
 मेरे बाबूजी गत 16 फरवरी को इस दुनिया से चले गए !श्री जगन्नाथ त्रिपाठी ११ फरवरी ,1930 को जन्मे  हिंदी    अंग्रेजी  भाषा के पंडित थे .भाषा
विज्ञान पर उनके लेख ,कवितायेँ गज़लें दोहे और
बहुत सा अनुवाद कार्य !उनका परिचय बहुत बड़ा है पर उन्होंने स्वयं को कभी प्रकाशित  नहीं किया !
उनके चरणों मेरी श्रद्धांजलि अर्पित है और उनको शब्दों की  यह माला अर्पित है  


पिता जब नहीं हैं लग रहा है
 वे  आसमान थे .
तब हमारे हिस्से में  छाँव  ही छांव  थी  
वे   धूप  के  नियंता  थे !
वे हमारे लिए नींद 
और  स्वप्न रचते थे .
छेनी हथौड़ी लिए समय के  अँधेरे  पर
 रोशनी की तस्वीर चुनते  थे .
पिता जब नहीं हैं लग रहा है
 वे बाजीगर थे .
स्याही और सरकंडे कोरे 
 पन्ने  जाने कहाँ से लाते थे  
 वे  हमारी पोथी और बस्ता थे.
लेकिन पिता  जाने क्यों 
 छुपकर रोते थे !
 आदि मानव की तरह या
 आसमान की तरह 
.हम भी  सदियों तक रोयेंगे
 उल्कापात में टूटी किसी  टहनी की तरह !

शनिवार, 15 जनवरी 2011

उमचन सी कसी जाती है

.भिगोकर बुनी जाती है

जितना हों सके खीचकर तानकर

जाती है बनायीं

उधेड़ दी जाती है आसानी से

औरत

बसखट की तरह होती है . .

कोई जगह नहीं मुकम्मल .

.कहीं भी जाती है .. बिछायी

.एक जगह से दूसरी जगह मांग ली जाती है

जिसकी होती है उसकी मर्जी बड़ी होती है

..दालान में ओसार में

दुआर पर खलिहान में मडई में

घर में कहीं भी पड़ी होती है .

धूप से आंधी पानी से जाती है बचाई

चलेगा बसखट के बिना कैसे काम

नींद कहाँ आएगी कैसे आयेंगे सपने

.जितनी पुरानी

उतनी नरम होती है

औरत बसखट की तरह होती है

आसान

हर बार खोली और बुनी जाती है

उमची जाती है कसी जाती है