गुरुवार, 11 जून 2009

मेरे घर में आती है
खुली खिड़की से हवा
आताहै आसमान भी पूरा पूरा वहीँ से
आती है उदासी उसी खिड़की से
रहता है पूरा घर जैसे वहीँ पर
वह खिड़की वजूद है मेरे होने का
करती है बात कबसे
इसी खिड़की से ढलती है शाम
रात चुप चाप दाखिल होती है यहीं से
सपनों का नींद में आना है यहीं से
यहीं से झांकती हैं तन्हाईयाँ
जाने के बाद
लगती है बच्चे को सायकिल सी ज़रूरी
सू खी डालें बरसातें
महक ज़मीं सितारें चाँद
सागर भरकर नावें
, बादल जाने कितनी शक्लोंवाले
झाँक कर झाँक कर जाते
जैसे छेड़े कोई नई उम्रे की किसी लजीली कों
दरवाजों ने कई बार है टोका इसको
बंद करो ये ताका झांकी
टोका टोकी
मगर ये खिड़की उड़ती जाती दूर फलक तक
क्षितिज से सारी खबरें लाती उछल उछल कर
फुर्सत में समय के कोने से
दरवाज़ा हौले दस्तक से खुलवाकर
पूछ ही लेती है खिड़की
दरवाजों से भी हाल चाल।