मंगलवार, 8 सितंबर 2009



फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त

कई टुकडे बन गए इबादत के
पढ़ते हुए
तुम्हारा ख़त

याद आई जाति बिरादरी
याद आया चूल्हा
छूत के डर से
छिपा एक कोने में
!

याद आई बाबा की
पीली जनेऊ

खींचती रेखा कलेजे में !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
याद आई
सिवान की थान
जहाँ जलता
पहला दिया हमारे ही घर से
!
याद आई झोपडी
तुम्हारी
जहाँ छीलते थे पिता
तुम्हारे
बांस
और बनाते थे खाली टोकरी !
याद

आया हमारा
भरा खेत खलिहान
!
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
घनी हों गई छांव नीम की
और
याद आई
गांव की बहती नदी

जिसमें डुबाये बैठते
हम

अपने अपने पाँव
!
और बहता
एक रंग पानी का!
फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त

कई टुकडे बन गए
इबादत के
और इबादत के कई टुकडे हुए!