पोर पोर तक
मेरे भीतर
महक रहा है
जंगल !
छोड़कर स्त्री के लिए बनाई गई
सभ्यता
जो
कहती है तुम मर जाओ अपनी इज्जत के लिए
बनाओ
जगह
मुकम्मल !
दिन का
रात भर
करो
हिसाब!
कर के सब किनारे ...
मैं हो गयी हूँ पानी,
जंगली सुगंध
समा गई हूँ हरे वन में। बन गई हूँ वनैली !
मिट्टी
से पानी का
एकालाप!
वृक्षों
का सघन फैलाव!
आकाश का
मैं हो गयी हूँ
अपने स्व में
पूरी
छोड़ तुम्हारी सभ्यता
मैं एक वन हूँ यानी स्त्री !!