पोर पोर तक
मेरे भीतर
महक रहा है
जंगल !
छोड़कर स्त्री के लिए बनाई गई
सभ्यता
जो
कहती है तुम मर जाओ अपनी इज्जत के लिए
बनाओ
जगह
मुकम्मल !
दिन का
रात भर
करो
हिसाब!
कर के सब किनारे ...
मैं हो गयी हूँ पानी,
जंगली सुगंध
समा गई हूँ हरे वन में। बन गई हूँ वनैली !
मिट्टी
से पानी का
एकालाप!
वृक्षों
का सघन फैलाव!
आकाश का
मैं हो गयी हूँ
अपने स्व में
पूरी
छोड़ तुम्हारी सभ्यता
मैं एक वन हूँ यानी स्त्री !!
कुछ तकनीकी गड़बड़ के कारण पढ़ नहीं पा रहा हूँ..
जवाब देंहटाएंकृपया अपना ब्लॉग जांच लें.....
मैं हों गयी हूँ पानी
जवाब देंहटाएंबन गयी हूँ झरना
पहली किरण
सबेरे की
लाली,
..........
खूबसूरत विम्ब ...!!! रूपांतरित हो जाने की कथा पूरी । बधाई
aek jngl or uski prstuti shaandaar prstuti bs akshr thode or saaf hote to mzaa aa jata. akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंआपकी कविताओं में जो गहरा आत्मीयता का स्पर्श और समर्पण का भाव होता है, वह लाजवाब है। यह रूमानियत जब प्रकृति के साथ एकाकार होता है तो गहरे अर्थ और बिंबों से कविता बहुआयामी रूप ले लेती है। यह ऐसी ही सुंदर रचना है। बधाई।
जवाब देंहटाएंनए बिम्बों के साथ अपने मन के भावों को प्रस्तुत किया है ...खूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंमन की पर्तों में छिपे भावों को करीने से सजाया है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना,
जवाब देंहटाएंतथाकथित और थोपी हुई
सभ्यता से थक कर ,ऊब कर ,
उसके संकरे रास्ते से निकलने की
इच्छा का मानसिक प्रतिबिम्बन ,
सुन्दर शब्दों में !
बहुत बधाई!
और समा गया है जंगल
जवाब देंहटाएंमेरे भीतर!
जहाँ है घनेपन की सुवास !
मिट्टी का
और
जब से
तुम में आ कर मिली हूँ
मैं
हों गयी हूँ
एक मुकम्मल पूरा जंगल
दिल को छू गयी आपकी ये पँक्तियाँ। शुभकामनायें
नये बिम्बो के साथ बेहतरीन चित्रण्।
जवाब देंहटाएंman jab sahaj dhang se apni baat kah jaaye , kavita vahan swayam astitva mein aa jati hai.mujhe sahajta achhi lagi.
जवाब देंहटाएंkrishnabihari
खूबसूरत अभिव्यक्ति के साथ बहुत अच्छी लगी यह रचना...
जवाब देंहटाएंदो दिन से कोशिश कर रही थी आपकी इस रचना को पढ़ने की लेकिन ना जाने क्यों ओपन ही नहीं होती थी. बहुत दिनों बाद लिखा आपने लेकिन मुकम्मल बिम्बो से परिपूर्ण और बेहतरीन लिखा.
जवाब देंहटाएंबधाई.
prgya
जवाब देंहटाएंpurnta ki kya pribhasha di hai aapne . wah !
तुम में आ कर मिली हूँ
जवाब देंहटाएंमैं
हों गयी हूँ
एक मुकम्मल पूरा जंगल!!!!!!!!!!
बहुत सुंदर बात कही प्रज्ञा !क्योंकि जंगल की आंतरिक व्यवस्था और सुरक्षा में मनमानापन नहीं है ! और यही इस कविता की जान है ! अनंत शुभकामनायें !
Kya baat hai aapki kavita mey ,ghazab ke bimb ukerey hai aapney,I am really impressed with the imagination that you put in your poem,marvellous.
जवाब देंहटाएंwith best wishes,
dr.bhoopendra
jeevansandarbh.blogspot.com
Khoob Kahaa
जवाब देंहटाएंbahut hi behtareen rachna..
जवाब देंहटाएंyun hi likhte rahein..
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मेरे ब्लॉग पर इस मौसम में भी पतझड़ ..
जरूर आएँ..
तुम में आ कर मिली हूँ
जवाब देंहटाएंमैं
हों गयी हूँ
एक मुकम्मल पूरा जंगल ...
दिल के अंधेरे से अक्सर ज़ज्बात जंगल हो जाते हैं ....
बहुत गहरे भाव हैं इस रचना में ....
मुकम्मल का मतलब ही पूरा होता है ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर अल्फाज और बेहतरीन भाव की रचना
जवाब देंहटाएंसही बात है शरद जी शुक्रिया !मगर कविता के लिए कुछ नहीं कहा आपने !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बिम्ब ... अद्भुत रचना !
जवाब देंहटाएंPragya ji, bahut sundar bhav hain. Badhayi swikaren.
जवाब देंहटाएं..............
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