शनिवार, 15 जनवरी 2011

उमचन सी कसी जाती है

.भिगोकर बुनी जाती है

जितना हों सके खीचकर तानकर

जाती है बनायीं

उधेड़ दी जाती है आसानी से

औरत

बसखट की तरह होती है . .

कोई जगह नहीं मुकम्मल .

.कहीं भी जाती है .. बिछायी

.एक जगह से दूसरी जगह मांग ली जाती है

जिसकी होती है उसकी मर्जी बड़ी होती है

..दालान में ओसार में

दुआर पर खलिहान में मडई में

घर में कहीं भी पड़ी होती है .

धूप से आंधी पानी से जाती है बचाई

चलेगा बसखट के बिना कैसे काम

नींद कहाँ आएगी कैसे आयेंगे सपने

.जितनी पुरानी

उतनी नरम होती है

औरत बसखट की तरह होती है

आसान

हर बार खोली और बुनी जाती है

उमची जाती है कसी जाती है

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

आँगन से होकर  भोर निकल आई जैसे  दुआर तक !
तुम भी क्यों नहीं   निकल आती हो  उसी तरह
और  किरणों की  तरह   करती हो  सुनहरी बारिश जिसमें दब जाए धूल गर्द जो परम्पराओं के  जुलूस के साथ उठती रही है ! 
महावरों में रची  है जब  भाग्य रेखा.तब . क्यों नहीं उचक कर  तोड़ लेती हों तुम अपने हिस्से का   ब्रह्माण्ड
जो रोज़ तुम्हारे आँगन में  झांकता  है ! 
जब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों  दहलीज पर खड़े  रिवाज !
क्यों नहीं बो  लेती हो धान के साथ  समय जो
लहलहाए और   तुम्हारा हो !  
गावं के मुहाने से होकर निकल आओ और
अपने    आकाश गंगीय किनारों पर    .
रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें 
जब तुम रोप रही होगी अपने सपने  रजनी गंधl ,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले  आकाश में !
 नितांत अपने उगाये  समय में  !  .



रविवार, 5 सितंबर 2010

एक मुकम्‍मल पूरा जंगल

पोर पोर तक
मेरे भीतर

महक रहा है
जंगल !

छोड़कर स्त्री के लिए  बनाई गई 

सभ्यता 
जो
कहती है तुम मर जाओ  अपनी इज्जत के लिए 

बनाओ 
जगह
मुकम्मल !
दिन का
रात भर 
करो
हिसाब!
ढलको मेरे लिए 
कर के सब किनारे ...
मैं हो गयी हूँ पानी,
झरना,किरण,लाली,
 जंगली सुगंध 
समा गई हूँ  हरे वन में। बन गई हूँ  वनैली  !
मिट्टी

से पानी का 
एकालाप!
वृक्षों
का  सघन फैलाव!
आकाश का
धरती से निरभ्र
भाव!
रोशनी


का
चाँद से 
अविछिन्न
बहाव !
मैं हो   गयी हूँ
अपने स्व में 

पूरी
छोड़ तुम्हारी सभ्यता 
मैं एक  वन हूँ यानी स्त्री !!

सोमवार, 26 जुलाई 2010

आकाश से ज़मीन की रह गुजर में ...............

हम  खो गए
 जैसे रास्तों पर
 खो जाते हैं पावों के निशान  
 फिर   खो 
 जाती है 
 स्फूर्ति सारी ताक़त सारा रस कहीं .!. .
 जैसे खो जाते हैं बादल बरस कर 
और फिर आकाश से ज़मीन की रह गुजर में 
 खो जाती है बूँद !
 हम ऐसे खो गए जैसे खो जाती है बिजली
 चमक्रकर बस एक बार
 गरजकर रह जाती है
 कहीँ दूर खोहों में पहाड़ों में !
 हम खो गए जैसे खो जाती है
 आवाज़ पुकार  कर   थक कर हार  !
 मगर फिर भी थे कहीं अनाम गुमनाम अनाकार  
अरूप ही सही   हम हवा की तरह 
  शायद   नहीं थे 
 हम  सिर्फ निशान  भर, न ही बूँद भर.
 न तो बस बिजली
 न सिर्फ आवाज़ भर ...
 

शनिवार, 15 मई 2010

घर होती हैं औरते सराय होती हैं


 घर होती   हैं औरते 
                  सराय होती हैं. 
                  अन्नपूर्णा  होती हैं  
                 पुआल  होती है .
ओढना बिछौना सपना  
 मचान होती हैं .
 दुआर  दहलीज  तो  होती हैं 
 सन्नाटा सिवान होती हैं.
खलिहान और अन्न तो होती  हैं 
अक्सर  आसमान होती हैं .
कच्ची मिट्टी घर की भीत
  थूनी  थवार होती हैं .
 बारिशी  दिनों में ओरी से चूती हैं 
पोखर होती हैं सेवार होती हैं . 
अक्सर बंसवार होती हैं .
औरते बंदनवार होती हैं .
छूने पर छुई मुई तो होती है 
 तूफानों  में  
  खेवयिया होती हैं
 पतवार होती हैं. 

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

निरपराध लोग

कुछ  लोग जब रचने  में लगे हैं 
कविता
करने में जुटे हैं प्रेम .

 मारे  गए
 
शस्त्रयुक्त
 बिखरने के लिए 
  प्रतिबद्ध
निरपराध लोग  !
जब
आज  लोग  उठाते हैं 
 अभिव्यक्तियों   के खतरे
.और उन खतरों पर होती है बहस!
 मारे गए कुछ लोगों की 

 अभिव्यक्तियां
कर गयीं हैं  काठ!
चुप 
क्यों है बहस !!
जो  मारे  गए वे
थे कौन 
क्यों  मर  गए ?
कौन सा जिला 

कौन सा देश
 कौन सा गावं था उनका !
कौन सा बचपन !

थे कौन से   स्वप्न  !
क्या   पूछा उन्होंने  या
  कि बताया
 कि कैसे गिरगिट
 चढ़ आया था कान तक
!
क्या
 कभी
पूछा उन्होंने
 ये प्रश्न संसद से
   सरकार क्यों  चैन से  सोती है
सुरक्षित बेदाग़  बेहिसाब ! !
 है  समर्थ  जो

 सहर्ष करती है  फैसले .
जीने मरने वालों पर

 सम भाव से !
 या क्या कभी पूछा हमने !!
   

मंगलवार, 9 मार्च 2010

 में  सूरज ने  दी  आंच

हमें  सूरज ने दी  आंच
..ओस ने सींचा
चाँदनी सहला गयी 
हमें बारिशें नहला गयी
आसमान   भी उतना ही
  रहा मेहरबान 
 हमें  नर्म धरती सहेजती रही
ठीक वैसे जैसे तुमको
..उसने  कुछ  तो नहीं छीना
  हक बराबर  दिया
 फिर तुमने क्यों की बंदरबाट
हमारा हिस्सा क्यों छीना .
हम तुम पर मेहरबान रहे
 जाने दो छोडो कह माफ़ किया
लेकिन यह क्या पानी सर
 के ऊपर से
अब तो   गुज़र गया
हर बार हमारी देह को लूटा
 अपने कोष का हिस्सा मान
तुमने क्यों  हक की मुहर लगायी.
खेत तुम्हारे और
हम
क्यों रहे अन्न की तरहछीजते !

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

तुम्हें जानती हूँ

तुम   अलस्सुबह   उठे   होगे
  तुम्हारी नींद  में क्या क्या
  हुआ होगा  !
जानती हूँ
  जल्दी  में भी   देर हुई होगी
  एक बाल तुम्हारा
दोनों भौहों के बीच  अटका   होगा
टाई  किस कसक के साथ   पहनी  होगी  !
 गुलाब को  टहनी
    तुम  ने
गहरी निगाहें डाल
 देखा होगा
  जानती हूँ   कि सुबह की चाय में
 मेरी महक होगी 
 वह  पूरे दिन   तुम्हें बेचैन रखेगी
  रात वह  तुम्हारी नींद में होगी
     और  तुम  चैन से सो पाओगे
  जुदा बात है
 कि  समंदर की तरह    छटपटाओगे
 और  बालुओं में घर  बनाओगे
 कहते हों कि ज़िन्दगी है  थोड़ी 
 लाख मैं कह दूँ कि थोडा हंस  लो भी
कहते हों   कि पहाड़ों से  होते हैं रस्ते !
  कहते हों कि शहर बड़ा हैं
पर सड़कें भी कम नहीं .!
   तुम   तलाशते हों सघन वन
यह भी
 कि तुमने  समय से  भिड़ने का
 मन बनाया था
  अब  कगार पर हों !
 कि तलछट में बचा है वक़्त  बहुत थोडा  और
  तुमने  कुछ  स्वप्न किये  थे  तय !
तुम्हें
जीना था उन्हें! 
 वही स्वप्न   खोजती हूँ
तुम्हें जानती हूँ इतना फिर भी
 तुम्हारे सपनों के मारे  जाने की वजहें  तलाशती हूँ  !!!

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

फूल पीले  मत बटोरो
   झरने दो !
 प्रियतम  की छुवन
 से खिले थे
 दहने दो !
प्रिय कब फिर आएंगे 
  कौन जानता है !
आएगा कब फिर   बसंत
  कौन जानता है !
अभी तो यादें  पुलकी   हैं 
साँसों में  साँसें  बहती   है !
 आग देह में जलती 
तभी सूरज भी तो 
मद्धिम है 
पीली है 
उसकी कांति
पूरी काली है   रात
 ताप  को जलने दो
फूल पीले  मत बटोरो
झरने दो !

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

 मेरी पूरी दुनिया
धीरे धीरे
होती है जिबह
सर से पाँव तक
मैं होती हूँ
शर्मसार तुमपर
 मैं भी पांच वक़्त कि नमाजी हूँ
 दुआ करती हूँ
कि
 तुम सोचो मुकम्मल
क्या नहीं जानते तुम
कि
धूप निकलती है
 मुझे बिना छुए
 और हवाओं में हों
 जाती है खुश्बू कम
 मै बन   गयी हूँ
बुत
फिर भी
 मेरी आँखों में समायी है
 तुम्हारा सच देखने की
 तीखी चाह
कैसी है
ये बात
कि
 मुझे बनाकर
बुत
तुम  नहीं
  हों पुजारी
 नहीं हों
परस्त बुत  !!

शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

हाँ मैं हूँ जंगली
मुझे नहीं आती
तुम्हारी बोली भाषा आभिजात्य
ओढ़ कर तुम्हारी हंसी का लबादा
नहीं लुटा सकती अपनी

अस्मिता अपने संस्कार !
मुझमें नहीं
इतनी ताक़त
कि पी जाऊं अपनी अस्मिता
और
परोसूं अपना वजूद !
हाँ मैं हूँ जंगली ..
नहीं जानती कि मुझमें है
ऐसा सौंदर्य
कि
सभ्यताएं पहन
तुम होते हों वहशी !
मगर मुझे आता है क्रोध
तुम्हारी संस्कृति पर!
मुझे आता है क्रोध
जब परम्पराओं की
चाशनी में लपेट तुम
शुरू करते हों
मुझको परोसना
हाँ मै हूँ जंगली
नहीं जानती
सभ्यता
पर इतना जानती हूँ कि
तुम शोषक हों
और मै हूँ शोषिता
हाँ मै हूँ जंगली
नहीं जानती सभ्यता!

सोमवार, 26 अक्टूबर 2009

ब्रह्माण्ड में बैठी है
जो चुप्पी
इसे आप नहीं जानते
यह बोलती तो है
पर
अपनी आवाज़ में
जैसे बच्ची
जब मारी गयी हों
भ्रूण में.
कि उसकी आवाज़ भती है
गर्भ का
ओर छोर !
ठीक दोपहर
यह चुप्पी
आ खड़ी होती है चौपाल में
धूप लू की तरह
बरसती है
ताबड़तोड़
करती है
लहू लुहान
मारती है
जाने कितनों को
बिना हर्फों की ये जुबान!
ये चुप्पी जमती जाती है शिराओं में
जैसे
हाशिये पर
जब रुक जाता है वक़्त
इस चुप्पी की खातिर
लोग गंगा में नहाते हैं
की शायद
धुल ही जाए गर्भ का खून
पर वह धुलता नहीं
किसी तरह
चुप्पी बनाती जाती है
सन्नाटों के चक्रव्यूह !
चक्रव्यूहों के चक्रव्यूह !
इस चुप्पी को पीसता है
खेत में खडा बिजूका
जो आँधियों में
गिर गया है लगता
चुप्पी साधती है मौन
और होती है युद्ध रत
निरंतर !
यह चुप्पी आत्महंता की
होती है खतरनाक
कहती है है पूरी बात
करती है पूरा घात !

गुरुवार, 24 सितंबर 2009



क्या है औरत की देह
कि
वे देह विमर्श करते हैं
क्या वे चाहते हैं
खोजना

कि
औरत को देह बनाने में जुटते हैं
क्या वे जानते नहीं
कि
पल रही है सृष्टि
उसी कि कोख में

कि उसके स्तन सींचते हैं प्राण
कि वह जब करती है प्यार
तो देखती
नहीं है
आगे पीछे
और होती है
सर्वहारा सी

और उसी कि देह पर
होता है विमर्श
क्या है उसकी देह
कि
जब तनती है
तो हों जाती है आकाश

और जब भीगती है
तो जैसे धरती
देती है तो ईश्वर सी
और मांगती है क्या !
वे थाह नहीं पाते हैं
और करने लगते हैं
विमर्श

लिखने लगते हैं शब्द
उसी देह पर

और पढ़ने लगते हैं देह बार बार
और फिर करते हैं
विमर्श!! विमर्श!! विमर्श !! और सिर्फ विमर्श !!



मंगलवार, 8 सितंबर 2009



फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त

कई टुकडे बन गए इबादत के
पढ़ते हुए
तुम्हारा ख़त

याद आई जाति बिरादरी
याद आया चूल्हा
छूत के डर से
छिपा एक कोने में
!

याद आई बाबा की
पीली जनेऊ

खींचती रेखा कलेजे में !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
याद आई
सिवान की थान
जहाँ जलता
पहला दिया हमारे ही घर से
!
याद आई झोपडी
तुम्हारी
जहाँ छीलते थे पिता
तुम्हारे
बांस
और बनाते थे खाली टोकरी !
याद

आया हमारा
भरा खेत खलिहान
!
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
घनी हों गई छांव नीम की
और
याद आई
गांव की बहती नदी

जिसमें डुबाये बैठते
हम

अपने अपने पाँव
!
और बहता
एक रंग पानी का!
फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त

कई टुकडे बन गए
इबादत के
और इबादत के कई टुकडे हुए!

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

सोमवार, 27 जुलाई 2009

तुम चाहते हो
अकेली मिलूं मैं तुम्हें
पर अकेली नहीं मैं
मेरे पास है
मेरी ज्वालाओं की आग
तमाम वर्जनाओं का पूरा अतीत ।
जबसे ये जंगल हैं
तबसे ही मैं हूँ ढोती
नई सलीबें!
मैंने उफ़ नहीं की
मगर बनाती गई
आग के कुँए अपने वजूद में
तुमने जाना की मौन हूँ
तो
हूँ मैं मधुर!
मगर मैं तो मजबूत करती रही रीढ़
कि
करुँगी मुकाबला एक दिन
रतजगों ने दी
जो तपिश उसको ढाला
मैंने कवच में
उसी को पहन आउंगी तुमसे मिलने.
अकेली नहीं मैं .

सोमवार, 29 जून 2009

औरतें तलाशती हैं
छत ,छाजन।
आँचल गीत
खोजती हैं
आकाश थोडी धूप
हकबकायी औरतें
ढूंढ रहीं हैं
दौरी सूप
वे खोजतीं हैं आग
उन्हें पकानी है रसोईं
पतझड़ हो गई
औरतें
स्तनों के बीच
तलाशती
बच्चे
पूछती हैं
आतंकियों से
कहाँ मिलेंगे अब
कोनें जिनमें छुपती
थीं वे मार खाकर

गुरुवार, 11 जून 2009

मेरे घर में आती है
खुली खिड़की से हवा
आताहै आसमान भी पूरा पूरा वहीँ से
आती है उदासी उसी खिड़की से
रहता है पूरा घर जैसे वहीँ पर
वह खिड़की वजूद है मेरे होने का
करती है बात कबसे
इसी खिड़की से ढलती है शाम
रात चुप चाप दाखिल होती है यहीं से
सपनों का नींद में आना है यहीं से
यहीं से झांकती हैं तन्हाईयाँ
जाने के बाद
लगती है बच्चे को सायकिल सी ज़रूरी
सू खी डालें बरसातें
महक ज़मीं सितारें चाँद
सागर भरकर नावें
, बादल जाने कितनी शक्लोंवाले
झाँक कर झाँक कर जाते
जैसे छेड़े कोई नई उम्रे की किसी लजीली कों
दरवाजों ने कई बार है टोका इसको
बंद करो ये ताका झांकी
टोका टोकी
मगर ये खिड़की उड़ती जाती दूर फलक तक
क्षितिज से सारी खबरें लाती उछल उछल कर
फुर्सत में समय के कोने से
दरवाज़ा हौले दस्तक से खुलवाकर
पूछ ही लेती है खिड़की
दरवाजों से भी हाल चाल।

बुधवार, 10 जून 2009

सुख और दुःख तो बातें हैं
महसूस करने की.. ...पूरी ज़िन्दगी ही दर्द में लिपटी कविता है...क्यों न खूब जिया जाए इस कविता को और खूब पिया जाए iजीवन को .... !!

शुक्रवार, 15 मई 2009

याद आती है बचपन की बारिश
जब लरज उठती थी
बँसवारी हरहराती बूंदों से
और सागौन के पत्तों से फिसलता पानी
बेसब्र होकर चूमता था ज़मीं
मैं झूठे के काम बहाने पार करती थी आँगन
बिना बताये किसे भी
भीगती थी छत पर
रात जब आती थी घटा टॉप होता था
बिजली जब कौंधती थी मै दम साध लेती थी
और खोजती थी आकाश बिजली की कौंध में
आज वही बारिश है पर नहीं लरजती है बँसवारी
मै पार नहीं करती आँगन भीगने के डर से
सागौन के पत्तों से जाने कब फिसल जाता है पानी
भूल सी गई है छत
घटा टॉप दिखाई देता है आसमान
और उसपर बिजली जब कौंधती है मै दम साध लेती हूँ की होगा क्या अब आगे
नहीं खोज पाती थोडा सा आसमान अपने लिए