सोमवार, 27 जुलाई 2009

तुम चाहते हो
अकेली मिलूं मैं तुम्हें
पर अकेली नहीं मैं
मेरे पास है
मेरी ज्वालाओं की आग
तमाम वर्जनाओं का पूरा अतीत ।
जबसे ये जंगल हैं
तबसे ही मैं हूँ ढोती
नई सलीबें!
मैंने उफ़ नहीं की
मगर बनाती गई
आग के कुँए अपने वजूद में
तुमने जाना की मौन हूँ
तो
हूँ मैं मधुर!
मगर मैं तो मजबूत करती रही रीढ़
कि
करुँगी मुकाबला एक दिन
रतजगों ने दी
जो तपिश उसको ढाला
मैंने कवच में
उसी को पहन आउंगी तुमसे मिलने.
अकेली नहीं मैं .