शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

 मेरी पूरी दुनिया
धीरे धीरे
होती है जिबह
सर से पाँव तक
मैं होती हूँ
शर्मसार तुमपर
 मैं भी पांच वक़्त कि नमाजी हूँ
 दुआ करती हूँ
कि
 तुम सोचो मुकम्मल
क्या नहीं जानते तुम
कि
धूप निकलती है
 मुझे बिना छुए
 और हवाओं में हों
 जाती है खुश्बू कम
 मै बन   गयी हूँ
बुत
फिर भी
 मेरी आँखों में समायी है
 तुम्हारा सच देखने की
 तीखी चाह
कैसी है
ये बात
कि
 मुझे बनाकर
बुत
तुम  नहीं
  हों पुजारी
 नहीं हों
परस्त बुत  !!