मंगलवार, 9 मार्च 2010

 में  सूरज ने  दी  आंच

हमें  सूरज ने दी  आंच
..ओस ने सींचा
चाँदनी सहला गयी 
हमें बारिशें नहला गयी
आसमान   भी उतना ही
  रहा मेहरबान 
 हमें  नर्म धरती सहेजती रही
ठीक वैसे जैसे तुमको
..उसने  कुछ  तो नहीं छीना
  हक बराबर  दिया
 फिर तुमने क्यों की बंदरबाट
हमारा हिस्सा क्यों छीना .
हम तुम पर मेहरबान रहे
 जाने दो छोडो कह माफ़ किया
लेकिन यह क्या पानी सर
 के ऊपर से
अब तो   गुज़र गया
हर बार हमारी देह को लूटा
 अपने कोष का हिस्सा मान
तुमने क्यों  हक की मुहर लगायी.
खेत तुम्हारे और
हम
क्यों रहे अन्न की तरहछीजते !