मेरी पूरी दुनिया
धीरे धीरे
होती है जिबह
सर से पाँव तक
मैं होती हूँ
शर्मसार तुमपर
मैं भी पांच वक़्त कि नमाजी हूँ
दुआ करती हूँ
कि
तुम सोचो मुकम्मल
क्या नहीं जानते तुम
कि
धूप निकलती है
मुझे बिना छुए
और हवाओं में हों
जाती है खुश्बू कम
मै बन गयी हूँ
बुत
फिर भी
मेरी आँखों में समायी है
तुम्हारा सच देखने की
तीखी चाह
कैसी है
ये बात
कि
मुझे बनाकर
बुत
तुम नहीं
हों पुजारी
नहीं हों
परस्त बुत !!