शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

हाँ मैं हूँ जंगली
मुझे नहीं आती
तुम्हारी बोली भाषा आभिजात्य
ओढ़ कर तुम्हारी हंसी का लबादा
नहीं लुटा सकती अपनी

अस्मिता अपने संस्कार !
मुझमें नहीं
इतनी ताक़त
कि पी जाऊं अपनी अस्मिता
और
परोसूं अपना वजूद !
हाँ मैं हूँ जंगली ..
नहीं जानती कि मुझमें है
ऐसा सौंदर्य
कि
सभ्यताएं पहन
तुम होते हों वहशी !
मगर मुझे आता है क्रोध
तुम्हारी संस्कृति पर!
मुझे आता है क्रोध
जब परम्पराओं की
चाशनी में लपेट तुम
शुरू करते हों
मुझको परोसना
हाँ मै हूँ जंगली
नहीं जानती
सभ्यता
पर इतना जानती हूँ कि
तुम शोषक हों
और मै हूँ शोषिता
हाँ मै हूँ जंगली
नहीं जानती सभ्यता!

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

ब्रह्माण्ड में बैठी है
जो चुप्पी
इसे आप नहीं जानते
यह बोलती तो है
पर
अपनी आवाज़ में
जैसे बच्ची
जब मारी गयी हों
भ्रूण में.
कि उसकी आवाज़ भती है
गर्भ का
ओर छोर !
ठीक दोपहर
यह चुप्पी
आ खड़ी होती है चौपाल में
धूप लू की तरह
बरसती है
ताबड़तोड़
करती है
लहू लुहान
मारती है
जाने कितनों को
बिना हर्फों की ये जुबान!
ये चुप्पी जमती जाती है शिराओं में
जैसे
हाशिये पर
जब रुक जाता है वक़्त
इस चुप्पी की खातिर
लोग गंगा में नहाते हैं
की शायद
धुल ही जाए गर्भ का खून
पर वह धुलता नहीं
किसी तरह
चुप्पी बनाती जाती है
सन्नाटों के चक्रव्यूह !
चक्रव्यूहों के चक्रव्यूह !
इस चुप्पी को पीसता है
खेत में खडा बिजूका
जो आँधियों में
गिर गया है लगता
चुप्पी साधती है मौन
और होती है युद्ध रत
निरंतर !
यह चुप्पी आत्महंता की
होती है खतरनाक
कहती है है पूरी बात
करती है पूरा घात !