शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

हाँ मैं हूँ जंगली
मुझे नहीं आती
तुम्हारी बोली भाषा आभिजात्य
ओढ़ कर तुम्हारी हंसी का लबादा
नहीं लुटा सकती अपनी

अस्मिता अपने संस्कार !
मुझमें नहीं
इतनी ताक़त
कि पी जाऊं अपनी अस्मिता
और
परोसूं अपना वजूद !
हाँ मैं हूँ जंगली ..
नहीं जानती कि मुझमें है
ऐसा सौंदर्य
कि
सभ्यताएं पहन
तुम होते हों वहशी !
मगर मुझे आता है क्रोध
तुम्हारी संस्कृति पर!
मुझे आता है क्रोध
जब परम्पराओं की
चाशनी में लपेट तुम
शुरू करते हों
मुझको परोसना
हाँ मै हूँ जंगली
नहीं जानती
सभ्यता
पर इतना जानती हूँ कि
तुम शोषक हों
और मै हूँ शोषिता
हाँ मै हूँ जंगली
नहीं जानती सभ्यता!