रविवार, 5 सितंबर 2010

एक मुकम्‍मल पूरा जंगल

पोर पोर तक
मेरे भीतर

महक रहा है
जंगल !

छोड़कर स्त्री के लिए  बनाई गई 

सभ्यता 
जो
कहती है तुम मर जाओ  अपनी इज्जत के लिए 

बनाओ 
जगह
मुकम्मल !
दिन का
रात भर 
करो
हिसाब!
ढलको मेरे लिए 
कर के सब किनारे ...
मैं हो गयी हूँ पानी,
झरना,किरण,लाली,
 जंगली सुगंध 
समा गई हूँ  हरे वन में। बन गई हूँ  वनैली  !
मिट्टी

से पानी का 
एकालाप!
वृक्षों
का  सघन फैलाव!
आकाश का
धरती से निरभ्र
भाव!
रोशनी


का
चाँद से 
अविछिन्न
बहाव !
मैं हो   गयी हूँ
अपने स्व में 

पूरी
छोड़ तुम्हारी सभ्यता 
मैं एक  वन हूँ यानी स्त्री !!