सोमवार, 11 मई 2009

मन होता है की कितना कुछ कह जाएँ खुद से
अपने से बहुत सी बातें करनी होती हैं
वे बातें जिन्हें हम किसी तक पहुंचा नहीं पाते
वे बाते जिन्हें हम हर वक़्त खुद में जीते हैं
। कुछ लोग जो हमारे चेहरों के आस पास होते हैं
हमारे चेहरों में अपने चेहरे छोड़ जाते हैं
जबकि उनसे हमारा कोई नाता नहीं होता हमारे स्पर्शों में अपने स्पर्श छोड़ जाते हैं
कहीं न कही . वे लोग जो अपने मैले से आवरण में होकर भी हम पर सीधा वार
करते हैं ।
भले ही हम न माने की हम चोटिल हुए हैं उनके वार से ।
भले ही हम पहन लें धुले कपडे इस्तरी किये हुए
हम शर्मिंदा हैं कहीं न कहीँ

. . तभी ये होता है की
हमें आइना देखना पड़ता है बार बार .
हम बार बार ठीक करते हैं अपना चेहरा लेकिन वह ठीक नहीं होता है.
हम छुपाते हैं खुद को खुद से ही.
खुद से दूर जाने के लिए छुपाते हैं भीड़ में .
हम अपराधी हैं तमाम अपराधों के।
भले ही हमने न किये हों वे अपराध
मगर हम उनमें शामिल हैं कहीं न कहीं ।!!!!