बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

आँगन से होकर  भोर निकल आई जैसे  दुआर तक !
तुम भी क्यों नहीं   निकल आती हो  उसी तरह
और  किरणों की  तरह   करती हो  सुनहरी बारिश जिसमें दब जाए धूल गर्द जो परम्पराओं के  जुलूस के साथ उठती रही है ! 
महावरों में रची  है जब  भाग्य रेखा.तब . क्यों नहीं उचक कर  तोड़ लेती हों तुम अपने हिस्से का   ब्रह्माण्ड
जो रोज़ तुम्हारे आँगन में  झांकता  है ! 
जब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों  दहलीज पर खड़े  रिवाज !
क्यों नहीं बो  लेती हो धान के साथ  समय जो
लहलहाए और   तुम्हारा हो !  
गावं के मुहाने से होकर निकल आओ और
अपने    आकाश गंगीय किनारों पर    .
रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें 
जब तुम रोप रही होगी अपने सपने  रजनी गंधl ,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले  आकाश में !
 नितांत अपने उगाये  समय में  !  .