ब्रह्माण्ड में बैठी है
जो चुप्पी
इसे आप नहीं जानते
यह बोलती तो है
पर
अपनी आवाज़ में
जैसे बच्ची
जब मारी गयी हों
भ्रूण में.
कि उसकी आवाज़ भरती है
गर्भ का
ओर छोर !
ठीक दोपहर
यह चुप्पी
आ खड़ी होती है चौपाल में
धूप लू की तरह
बरसती है
ताबड़तोड़
करती है
लहू लुहान
मारती है
जाने कितनों को
बिना हर्फों की ये जुबान!
ये चुप्पी जमती जाती है शिराओं में
जैसे
हाशिये पर
जब रुक जाता है वक़्त
इस चुप्पी की खातिर
लोग गंगा में नहाते हैं
की शायद
धुल ही जाए गर्भ का खून
पर वह धुलता नहीं
किसी तरह
चुप्पी बनाती जाती है
सन्नाटों के चक्रव्यूह !
चक्रव्यूहों के चक्रव्यूह !
इस चुप्पी को पीसता है
खेत में खडा बिजूका
जो आँधियों में
गिर गया है लगता
चुप्पी साधती है मौन
और होती है युद्ध रत
निरंतर !
यह चुप्पी आत्महंता की
होती है खतरनाक
कहती है है पूरी बात
करती है पूरा घात !
सोमवार, 26 अक्टूबर 2009
गुरुवार, 24 सितंबर 2009

क्या है औरत की देह
कि
वे देह विमर्श करते हैं
क्या वे चाहते हैं
खोजना
कि
औरत को देह बनाने में जुटते हैं
क्या वे जानते नहीं
कि
पल रही है सृष्टि
उसी कि कोख में
कि उसके स्तन सींचते हैं प्राण
कि वह जब करती है प्यार
तो देखती नहीं है
आगे पीछे
और होती है
सर्वहारा सी
और उसी कि देह पर
होता है विमर्श
क्या है उसकी देह
कि
जब तनती है
तो हों जाती है आकाश
और जब भीगती है
तो जैसे धरती
देती है तो ईश्वर सी
और मांगती है क्या !
वे थाह नहीं पाते हैं
और करने लगते हैं
विमर्श
लिखने लगते हैं शब्द
उसी देह पर
और पढ़ने लगते हैं देह बार बार
और फिर करते हैं
विमर्श!! विमर्श!! विमर्श !! और सिर्फ विमर्श !!
कि
वे देह विमर्श करते हैं
क्या वे चाहते हैं
खोजना
कि
औरत को देह बनाने में जुटते हैं
क्या वे जानते नहीं
कि
पल रही है सृष्टि
उसी कि कोख में
कि उसके स्तन सींचते हैं प्राण
कि वह जब करती है प्यार
तो देखती नहीं है
आगे पीछे
और होती है
सर्वहारा सी
और उसी कि देह पर
होता है विमर्श
क्या है उसकी देह
कि
जब तनती है
तो हों जाती है आकाश
और जब भीगती है
तो जैसे धरती
देती है तो ईश्वर सी
और मांगती है क्या !
वे थाह नहीं पाते हैं
और करने लगते हैं
विमर्श
लिखने लगते हैं शब्द
उसी देह पर
और पढ़ने लगते हैं देह बार बार
और फिर करते हैं
विमर्श!! विमर्श!! विमर्श !! और सिर्फ विमर्श !!
मंगलवार, 8 सितंबर 2009

फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकडे बन गए इबादत के
पढ़ते हुए
तुम्हारा ख़त
याद आई जाति बिरादरी
याद आया चूल्हा
छूत के डर से
छिपा एक कोने में !
याद आई बाबा की
पीली जनेऊ
खींचती रेखा कलेजे में !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
याद आई
सिवान की थान
जहाँ जलता
पहला दिया हमारे ही घर से !
याद आई झोपडी
तुम्हारी
जहाँ छीलते थे पिता
तुम्हारे
बांस
और बनाते थे खाली टोकरी !
याद
आया हमारा
भरा खेत खलिहान !
तुम्हारा ख़त पढ़ते हुए
घनी हों गई छांव नीम की
और
याद आई
गांव की बहती नदी
जिसमें डुबाये बैठते
हम
अपने अपने पाँव !
और बहता
एक रंग पानी का!
फाड़ दिया
तुम्हारा ख़त
कई टुकडे बन गए
इबादत के
और इबादत के कई टुकडे हुए!
मंगलवार, 18 अगस्त 2009
सोमवार, 27 जुलाई 2009
तुम चाहते हो
अकेली मिलूं मैं तुम्हें
पर अकेली नहीं मैं
मेरे पास है
मेरी ज्वालाओं की आग
तमाम वर्जनाओं का पूरा अतीत ।
जबसे ये जंगल हैं
तबसे ही मैं हूँ ढोती
नई सलीबें!
मैंने उफ़ नहीं की
मगर बनाती गई
आग के कुँए अपने वजूद में
तुमने जाना की मौन हूँ
तो
हूँ मैं मधुर!
मगर मैं तो मजबूत करती रही रीढ़
कि
करुँगी मुकाबला एक दिन
रतजगों ने दी
जो तपिश उसको ढाला
मैंने कवच में
उसी को पहन आउंगी तुमसे मिलने.
अकेली नहीं मैं .
अकेली मिलूं मैं तुम्हें
पर अकेली नहीं मैं
मेरे पास है
मेरी ज्वालाओं की आग
तमाम वर्जनाओं का पूरा अतीत ।
जबसे ये जंगल हैं
तबसे ही मैं हूँ ढोती
नई सलीबें!
मैंने उफ़ नहीं की
मगर बनाती गई
आग के कुँए अपने वजूद में
तुमने जाना की मौन हूँ
तो
हूँ मैं मधुर!
मगर मैं तो मजबूत करती रही रीढ़
कि
करुँगी मुकाबला एक दिन
रतजगों ने दी
जो तपिश उसको ढाला
मैंने कवच में
उसी को पहन आउंगी तुमसे मिलने.
अकेली नहीं मैं .
सोमवार, 29 जून 2009
गुरुवार, 11 जून 2009
मेरे घर में आती है
खुली खिड़की से हवा
आताहै आसमान भी पूरा पूरा वहीँ से
आती है उदासी उसी खिड़की से
रहता है पूरा घर जैसे वहीँ पर
वह खिड़की वजूद है मेरे होने का
करती है बात कबसे
इसी खिड़की से ढलती है शाम
रात चुप चाप दाखिल होती है यहीं से
सपनों का नींद में आना है यहीं से
यहीं से झांकती हैं तन्हाईयाँ
जाने के बाद
लगती है बच्चे को सायकिल सी ज़रूरी
सू खी डालें बरसातें
महक ज़मीं सितारें चाँद
सागर भरकर नावें
, बादल जाने कितनी शक्लोंवाले
झाँक कर झाँक कर जाते
जैसे छेड़े कोई नई उम्रे की किसी लजीली कों
दरवाजों ने कई बार है टोका इसको
बंद करो ये ताका झांकी
टोका टोकी
मगर ये खिड़की उड़ती जाती दूर फलक तक
क्षितिज से सारी खबरें लाती उछल उछल कर
फुर्सत में समय के कोने से
दरवाज़ा हौले दस्तक से खुलवाकर
पूछ ही लेती है खिड़की
दरवाजों से भी हाल चाल।
खुली खिड़की से हवा
आताहै आसमान भी पूरा पूरा वहीँ से
आती है उदासी उसी खिड़की से
रहता है पूरा घर जैसे वहीँ पर
वह खिड़की वजूद है मेरे होने का
करती है बात कबसे
इसी खिड़की से ढलती है शाम
रात चुप चाप दाखिल होती है यहीं से
सपनों का नींद में आना है यहीं से
यहीं से झांकती हैं तन्हाईयाँ
जाने के बाद
लगती है बच्चे को सायकिल सी ज़रूरी
सू खी डालें बरसातें
महक ज़मीं सितारें चाँद
सागर भरकर नावें
, बादल जाने कितनी शक्लोंवाले
झाँक कर झाँक कर जाते
जैसे छेड़े कोई नई उम्रे की किसी लजीली कों
दरवाजों ने कई बार है टोका इसको
बंद करो ये ताका झांकी
टोका टोकी
मगर ये खिड़की उड़ती जाती दूर फलक तक
क्षितिज से सारी खबरें लाती उछल उछल कर
फुर्सत में समय के कोने से
दरवाज़ा हौले दस्तक से खुलवाकर
पूछ ही लेती है खिड़की
दरवाजों से भी हाल चाल।
बुधवार, 10 जून 2009
शुक्रवार, 15 मई 2009
याद आती है बचपन की बारिश
जब लरज उठती थी
बँसवारी हरहराती बूंदों से
और सागौन के पत्तों से फिसलता पानी
बेसब्र होकर चूमता था ज़मीं
मैं झूठे के काम बहाने पार करती थी आँगन
बिना बताये किसे भी
भीगती थी छत पर
रात जब आती थी घटा टॉप होता था
बिजली जब कौंधती थी मै दम साध लेती थी
और खोजती थी आकाश बिजली की कौंध में
आज वही बारिश है पर नहीं लरजती है बँसवारी
मै पार नहीं करती आँगन भीगने के डर से
सागौन के पत्तों से जाने कब फिसल जाता है पानी
भूल सी गई है छत
घटा टॉप दिखाई देता है आसमान
और उसपर बिजली जब कौंधती है मै दम साध लेती हूँ की होगा क्या अब आगे
नहीं खोज पाती थोडा सा आसमान अपने लिए
जब लरज उठती थी
बँसवारी हरहराती बूंदों से
और सागौन के पत्तों से फिसलता पानी
बेसब्र होकर चूमता था ज़मीं
मैं झूठे के काम बहाने पार करती थी आँगन
बिना बताये किसे भी
भीगती थी छत पर
रात जब आती थी घटा टॉप होता था
बिजली जब कौंधती थी मै दम साध लेती थी
और खोजती थी आकाश बिजली की कौंध में
आज वही बारिश है पर नहीं लरजती है बँसवारी
मै पार नहीं करती आँगन भीगने के डर से
सागौन के पत्तों से जाने कब फिसल जाता है पानी
भूल सी गई है छत
घटा टॉप दिखाई देता है आसमान
और उसपर बिजली जब कौंधती है मै दम साध लेती हूँ की होगा क्या अब आगे
नहीं खोज पाती थोडा सा आसमान अपने लिए
सोमवार, 11 मई 2009
मन होता है की कितना कुछ कह जाएँ खुद से
अपने से बहुत सी बातें करनी होती हैं
वे बातें जिन्हें हम किसी तक पहुंचा नहीं पाते
वे बाते जिन्हें हम हर वक़्त खुद में जीते हैं
। कुछ लोग जो हमारे चेहरों के आस पास होते हैं
हमारे चेहरों में अपने चेहरे छोड़ जाते हैं
जबकि उनसे हमारा कोई नाता नहीं होता हमारे स्पर्शों में अपने स्पर्श छोड़ जाते हैं
कहीं न कही . वे लोग जो अपने मैले से आवरण में होकर भी हम पर सीधा वार
करते हैं ।
भले ही हम न माने की हम चोटिल हुए हैं उनके वार से ।
भले ही हम पहन लें धुले कपडे इस्तरी किये हुए
हम शर्मिंदा हैं कहीं न कहीँ
. . तभी ये होता है की
हमें आइना देखना पड़ता है बार बार .
हम बार बार ठीक करते हैं अपना चेहरा लेकिन वह ठीक नहीं होता है.
हम छुपाते हैं खुद को खुद से ही.
खुद से दूर जाने के लिए छुपाते हैं भीड़ में .
हम अपराधी हैं तमाम अपराधों के।
भले ही हमने न किये हों वे अपराध
मगर हम उनमें शामिल हैं कहीं न कहीं ।!!!!
अपने से बहुत सी बातें करनी होती हैं
वे बातें जिन्हें हम किसी तक पहुंचा नहीं पाते
वे बाते जिन्हें हम हर वक़्त खुद में जीते हैं
। कुछ लोग जो हमारे चेहरों के आस पास होते हैं
हमारे चेहरों में अपने चेहरे छोड़ जाते हैं
जबकि उनसे हमारा कोई नाता नहीं होता हमारे स्पर्शों में अपने स्पर्श छोड़ जाते हैं
कहीं न कही . वे लोग जो अपने मैले से आवरण में होकर भी हम पर सीधा वार
करते हैं ।
भले ही हम न माने की हम चोटिल हुए हैं उनके वार से ।
भले ही हम पहन लें धुले कपडे इस्तरी किये हुए
हम शर्मिंदा हैं कहीं न कहीँ
. . तभी ये होता है की
हमें आइना देखना पड़ता है बार बार .
हम बार बार ठीक करते हैं अपना चेहरा लेकिन वह ठीक नहीं होता है.
हम छुपाते हैं खुद को खुद से ही.
खुद से दूर जाने के लिए छुपाते हैं भीड़ में .
हम अपराधी हैं तमाम अपराधों के।
भले ही हमने न किये हों वे अपराध
मगर हम उनमें शामिल हैं कहीं न कहीं ।!!!!
बुधवार, 6 मई 2009
सोमवार, 4 मई 2009
यह सिन्दौरा मेरा है .
मैं इसी के साथ यहाँ आई थी
कहा गया था की बहुत संभालना है इसे मुझे
सिर से लगाकर ही पीना है पानी
और फिर छूने हैं सबके चरण
य भी कहा की दीवारों के भीतर तक है मेरा घर
कहते थे की अब मैं बड़ी हूँ और जिम्मेदार भी
मैं भी रखती थी सिन्दौरा बक्से में और लगाती थी एक ताला उसमें
लेकिन अचानक कल कुछ हुआ
एक मेरे गौरेया आँगन में आई
और मेरी पलकों पर सोये गीत ले भागी
मैं भागी उसके पीछे और भूल आई ताला वहीँ पर
अब बक्सा खुला है .
कोई क्या चुराएगा ! क्या मेरा सिन्दौरा ?
अगर चुरा भी ले गया
तो क्या ले जायेगा
!
मैं अपने गीत वापस मांग लाइ हूँ उस गौरेया से !!
मैं इसी के साथ यहाँ आई थी
कहा गया था की बहुत संभालना है इसे मुझे
सिर से लगाकर ही पीना है पानी
और फिर छूने हैं सबके चरण
य भी कहा की दीवारों के भीतर तक है मेरा घर
कहते थे की अब मैं बड़ी हूँ और जिम्मेदार भी
मैं भी रखती थी सिन्दौरा बक्से में और लगाती थी एक ताला उसमें
लेकिन अचानक कल कुछ हुआ
एक मेरे गौरेया आँगन में आई
और मेरी पलकों पर सोये गीत ले भागी
मैं भागी उसके पीछे और भूल आई ताला वहीँ पर
अब बक्सा खुला है .
कोई क्या चुराएगा ! क्या मेरा सिन्दौरा ?
अगर चुरा भी ले गया
तो क्या ले जायेगा
!
मैं अपने गीत वापस मांग लाइ हूँ उस गौरेया से !!
बुधवार, 29 अप्रैल 2009
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