बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

आँगन से होकर  भोर निकल आई जैसे  दुआर तक !
तुम भी क्यों नहीं   निकल आती हो  उसी तरह
और  किरणों की  तरह   करती हो  सुनहरी बारिश जिसमें दब जाए धूल गर्द जो परम्पराओं के  जुलूस के साथ उठती रही है ! 
महावरों में रची  है जब  भाग्य रेखा.तब . क्यों नहीं उचक कर  तोड़ लेती हों तुम अपने हिस्से का   ब्रह्माण्ड
जो रोज़ तुम्हारे आँगन में  झांकता  है ! 
जब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों  दहलीज पर खड़े  रिवाज !
क्यों नहीं बो  लेती हो धान के साथ  समय जो
लहलहाए और   तुम्हारा हो !  
गावं के मुहाने से होकर निकल आओ और
अपने    आकाश गंगीय किनारों पर    .
रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें 
जब तुम रोप रही होगी अपने सपने  रजनी गंधl ,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले  आकाश में !
 नितांत अपने उगाये  समय में  !  .



34 टिप्‍पणियां:

  1. प्रज्ञा जी बहुत दिनों आपकी कोई कविता ब्लॉग पर आयी है.. लेकिन इस कविता में आपने विम्ब और प्रतीकों के माध्यम से नारी के भीतर झाँकने, उनको अपनी पहचान के प्रति प्रेरित कर रही हैं.. खूबसूरत कविता बन गई है.. कुछ पंक्तियाँ तो जादू सी लग रही हैं.. जैसे .. " जब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों दहलीज पर खड़े रिवाज !"

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  2. जब तुम रोप रही होगी अपने सपने रजनी गंधl ,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले आकाश में !
    नितांत अपने उगाये समय में!

    bahut pyare shabd.......pyari rachna!!
    Pragya jee, apni kavita ko jo aapne photo daale hain, uske thora niche khiska dijiye......kynki pahle najar me gadya jaisa pratit ho raha hai!1

    waise no doubt.......superb!

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  3. जब तुम रोप रही होगी
    अपने सपने
    रजनी गंधा
    बेला
    हरसिंगार
    नीले नीले खुले आकाश में !
    नितांत अपने उगाये समय में !
    .......................
    बिल्कुल ! कोई नहीं रोक पाएगा तब !!! .

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  4. मैं जब भी कुछ अच्छा लिखा पढता हूँ तो मन प्रसन्न हो जाता है....अभी बहुत प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ

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  5. कविता के साथ लगी तस्वीर को हमने कैमरे क़ैद कर लिया था ..नैनीताल की मोहित करनेवाली प्रक्रति है ! ..

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  6. paramparaon ki jameen bahut paki hui hoti hai, use tod pane ka sahas kam logon mein hota hai. magar vaqt aa raha hai ki aisi jameene tootengi.
    krishnabihar

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  7. बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति... पता नहीं इतनी अच्छी कवितायेँ कभी लिख पाउँगा या नहीं..

    मेरे ब्लॉग पर इस बार

    उदास हैं हम ....

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  8. रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें
    जब तुम रोप रही होगी अपने सपने रजनी गंधl ,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले आकाश में !
    नितांत अपने उगाये समय में !
    बहुत सुन्दर और सार्थक रचना ....नारी के मन के भावों के लिए सुन्दर बिम्ब प्रयुक्त किये हैं

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  9. बेहतरीन रचना !
    जब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों दहलीज पर खड़े रिवाज !
    काश ऐसा हो पाता ...

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  10. गावं के मुहाने से होकर निकल आओ !!!
    वे परम्पराएँ जो बेड़ियों की तरह है जिसमे औरत न जी सकती है और न मर सकती है , उसे तोड़ने की हिम्मत भरती ये कविता स्त्री मुक्ति की ओरसंकेत करती है ! ये मुक्ति समाज के लिए अच्छा ही होगा ! चित्र में अगाध जल है पर वहीं पतवार भी तो है ! इस प्रकार की सोच के लिए बधाई !

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  11. सुंदर शब्द संयोजन...बढ़िया लेखन बधाई

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  12. रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें
    जब तुम रोप रही होगी अपने सपने रजनी गंधl ,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले आकाश में !
    नितांत अपने उगाये समय में ! .

    Very motivating lines Pragya ji--Thanks

    .

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  13. गावं के मुहाने से होकर निकल आओ और
    अपने आकाश गंगीय किनारों पर .
    रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें
    is fasal kee aab badi tej hoti hai

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  14. prgya
    anil kant se sou prtisht shmt hu .
    bhut shi kha hai . jb bhi kuchh achchha aankho ke samne se gujrta hai to sntushti dohri ho jati hai . bhut sundar bhavnaye , anootha esrar jisme jzbat ki khoobsoorti is kdr smai hai ki kya khu .
    mera vishwas mano ,prshnsa is liye nhi kr rhi hu ki mai vyktigat roop se tumhe janti hu , blki kvita sach me bhut umda rchi hai tumne .
    es khoobsoorat khyal ko jama phnane ke liye bdhaai .

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  15. प्रज्ञा जी, आप छा गई, आप भा गईं..लिखते रहा करिए ना, अपने उगाए समय में. क्योंकि स्त्रियां अपने उगाए समय में अपना संसार रच डालती हैं. इसीलिए वे अक्सर उगाती है अपना समय..

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  16. क्यों नहीं उचक कर
    तोड़ लेती हों तुम अपने हिस्से का ब्रह्माण्ड ...

    बहुत हिम्मत और विशवास चाहिए .... और जो है किसी भी इंसान में अगर वो चाहे तो ...
    बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति है ...

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  17. यश वैभव सम्मान में,करे निरंतर वृद्धि.
    दीवाली का पर्व ये , लाये सुख - समृद्धि.
    आपको और आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें.
    मेरे ब्लॉग पर भी शुभकामनाओं सहित ग्रीटिंग हाज़िर है

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  18. Aapke blog par pahali bar aaya hun. Kavita ke sath lagi tasvir bhi achhi lagi.

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  19. सुंदर मनोभाव को समेटे है हर शब्द......प्रभावी अभिव्यक्ति

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  20. शब्द
    जैसे प्रवाहित हो रहे हैं
    भाव
    लहर लहर बन किनारों को
    छू पा रहे हैं
    मन
    भीग पाने का आनंद पा रहा है

    अभिवादन .

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  21. सही दिशा में सार्थक रचना के लिए वधाई !

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  22. प्रज्ञा जी....बहुत बढ़िया लगे....कविता रुपी भाव आपके....इन अर्थों को हमने अपनी तरह से छूआ है.....बेशक थे तो हर्फ़ आपके...!

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  23. वाह..क्या लिखा है। साधुवाद

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  24. रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें
    जब तुम रोप रही होगी अपने सपने रजनी गंधl ,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले आकाश में !
    नितांत अपने उगाये समय में ! ......

    बहुत ही सुन्दर रचना.

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  25. तब . क्यों नहीं उचक कर तोड़ लेती हों तुम अपने हिस्से का ब्रह्माण्ड
    जो रोज़ तुम्हारे आँगन में झांकता है !
    जब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों दहलीज पर खड़े रिवाज !

    सुंदर स्वप्निल अनुभूति सी रचना-
    बहुत अच्छा लिखा है -
    शुभकामनायें

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  26. achhi kavita ke libadhayee. samajik parivartan ke daur mein badlav hua karte hain.honge, aisi sambhavna dikhti hai.
    krishnabihari

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