बंद दरवाज़े खोलकर बाहर जब निकलतीं हैं स्त्रियां
उन्हें मालूम होता है कि जोखिम बहुत हैं
पराजय ही अधिक है जय कम है उनके हिस्से में
. मगर सारे भय बटोरकर सीने में वे जुटातीं हैं साहस।
चल पड़तीं हैं पहाड़ों की ओर।
. क्योंकि वे जानतीं हैं कि समतल उन्होंने ही किया है मैदानों को
,और तब वहीँ से फूटे हैं रास्ते। वे जानतीं हैं कि वे रास्ते झरनों की तरह नहीं हैं
न ही चरागाहों की तरह। वे नियति पर नहीं करतीं हैं भरोसा
उन्हें मालूम है कि रोटी गोल बन जाती है और
महकती है भूख भर
उनके जीने की बात पर
कभी कभी चाँद चलता है साथ
थोड़ा सा सूरज भी मुठ्ठी भर तारे होते हैं तो
कभी कुछ नहीं।।।
लेकिन उन्हें पार करनी है अँधेरे की वह नदी
जिसे पार करने के बाद रोटी गोल बने या न बने , दाल में नमक
ठीक हो ज्यादा या दहेज़ कम हो नाक कट रही हो या बच जाए यह सब
उनके जीने के लिए शर्त नहीं होती
वे दुर्गम पर दिखायी देने लगतीं हैं लहलहाती नदी की तरह।
मुसाफिर को रास्तों की तरह।
बहुत ही प्रभावी ... स्त्रियों को बाखूबी उतारा है इन पंक्तियों को ... श्रृष्टि से कम नहीं हैं स्त्रियाँ ...
जवाब देंहटाएंphir se blogging par aaya hoon . aap ke blog par bhi pahuncha
जवाब देंहटाएंacchi nazm . jeevan ka gyaan deti nazm
shukriya