मंगलवार, 18 अगस्त 2009




11 टिप्‍पणियां:

  1. पिछली कविता से बिलकुल अलग पर दोनों अपने अपने तेवरों के साथ विशिष्ट.एक स्त्री सती-चौरा की आग भी दबाये रहती है और प्रेम के फूल की मादक गंध भी. एक उसकी नियति तो दूसरा उसका स्वभाव.
    ये कविता अपने ताजे-धुले-धुले से प्रतीकों के चलते,क्लीशे में कहूँ तो 'हटकर' है.

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  2. फिर नदी अचानक सिहर उठी
    यह कौन छू गया साँझ ढले ,
    कैसे फूटा इसके जल में ;
    सरगम ,किसने संगीत रचा
    मिलना ,मुश्किल जिसका जग में
    कैसे इसमें वह गीत बचा ?
    वह नदी अचानक लहर उठी
    छू लिया किसी सुधि के पल ने .

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  3. कितनी करुना कितने संदेश
    पथ में बिछ जाते बन पराग,
    गाता प्राणों का तार-तार
    अनुराग भरा उन्माद राग ;
    बहुत सुंदर सुंदर भाव है ,इस गीत में !

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  4. इक बूँद सा होता है इक शब्द....
    इनसे बन जाता है सागर पूरा....!!
    इसका कोई मलाल मत करो तुम
    कि पूर्ण ही होता है प्रेम अधूरा...!!

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  5. आपकी कविता पहली बार पढी और अच्छी लगी.

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  6. मैं लहर लहर जीती हूँ
    पूरा सागर पीती हूँ
    तुम कश्ती बनकर आना
    ले चलना मुझे किनारे
    तब मैं सागर में खोकर
    सिकता से मोती होकर
    खो जाउंगी तुममें ही

    bahut sundar pragya...pichhli bhi kayi padhin...

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  7. प्रज्ञा जी बहुत ही सुन्‍दर और भावप्रद कविता. मिलन की तड़फ को शव्‍दों में गहरे से उकेरा है आपने. बहुत बहुत आभार.

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  8. प्रेम रस में ओ़त प्रोत बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति.
    आपकी रचनाओं के भाव अच्छे लगे.
    मेरे ब्लॉग पर आने का शुक्रिया.

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  9. bahut umda pragya ji ..
    sabdon evam bhavon ka uttam mel.
    bhadhayi sweekaren.

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  10. ek pyash jo kabhipori nahi ho sakti magar intjar me jee sakti hai udhe sakti hai.
    ye kavita padh kar laga jaise sargam ko ko ek frem miljata hai.

    rakesh

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