मंगलवार, 9 मार्च 2010

 में  सूरज ने  दी  आंच

हमें  सूरज ने दी  आंच
..ओस ने सींचा
चाँदनी सहला गयी 
हमें बारिशें नहला गयी
आसमान   भी उतना ही
  रहा मेहरबान 
 हमें  नर्म धरती सहेजती रही
ठीक वैसे जैसे तुमको
..उसने  कुछ  तो नहीं छीना
  हक बराबर  दिया
 फिर तुमने क्यों की बंदरबाट
हमारा हिस्सा क्यों छीना .
हम तुम पर मेहरबान रहे
 जाने दो छोडो कह माफ़ किया
लेकिन यह क्या पानी सर
 के ऊपर से
अब तो   गुज़र गया
हर बार हमारी देह को लूटा
 अपने कोष का हिस्सा मान
तुमने क्यों  हक की मुहर लगायी.
खेत तुम्हारे और
हम
क्यों रहे अन्न की तरहछीजते !

19 टिप्‍पणियां:

  1. अब तो गुज़र गया
    हर बार हमारी देह को लूटा
    अपने कोष का हिस्सा मान
    तुमने क्यों हक की मुहर लगायी.

    बहुत ही सुन्दर पक्तियां,अच्छी रचना.

    विकास पाण्डेय
    www.विचारो का दर्पण.blogspot.com

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  2. अपने कोष का हिस्सा मान
    तुमने क्यों हक की मुहर लगायी.

    बहुत ही सुन्दर पक्तियां,अच्छी रचना.

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  3. खेत तुम्हारे और
    हम
    क्यों अन्न की तरह छीजते रहे .!!!
    बहुत कचोटती है न अस्मिता की चोट !क्या कहें !सदिया गुजर गई !
    टुकड़ों टुकडो में जीते हुए ! कविता है कि स्त्री अस्मिता का इतिहास है !
    और जिन बिम्बों का प्रयोग किया है ! अद्भुत है ! दर्द गाढ़ा कर देता है !
    दिल से बधाई ! लेखनी को नमस्कार !!!

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  4. मार्मिक ... बहुत संवेदनशील बात लिखी है आपने ...ये सच है की ऐसा कोई भी फ़र्क इस प्राकृति ने नही किया ... ये सब पुरुष सत्ता का मोह है जो लगातार शोषण करता रहता है नारी का ... नारी सोच का .... बहुत अच्छा लिखा है ...

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  5. इतनी आग !!!!!!!!! कहीं अपना ही घर न जले ??? 'उनकी' तरह
    हम नासमझ नही हैं,और फिर ये भी तो सोचो की वे दूसरे का हिस्सा कितने दिन खाएँगे ? सहभागिता ,समता ,सहयोग ,और संतोष हम दोनों(स्त्री -पुरुष) को अपनाना पड़ेगा तभी दुनिया बचेगी ,मतभेद हो पर मनभेद न हो इसके लिए सोचना होगा.

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  6. हक बराबर दिया
    फिर तुमने क्यों की बंदरबाट
    हमारा हिस्सा क्यों छीना .

    Vedana gahri hai.

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  7. sadion se aurat k man me dahkti vedna ko aap ne shabad de diye....bahut hi samvendansheel kavita...sochne k liye majboor karti hai....AAKHIR KIYON....?

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  8. हर बार हमारी देह को लूटा
    अपने कोष का हिस्सा मान
    तुमने क्यों हक की मुहर लगायी.
    खेत तुम्हारे और
    हम
    क्यों अन्न की तरह रहे छीजते !

    यहां तक आते आते कविता का स्‍वर पूरी तरह बदल जाता है। ये 'अन्‍न की तरह रहे छीजते' का मुहावरा, प्रतिरोध को भी व्‍यक्‍त कर सकता है, आपकी काव्‍य मेधा का उत्‍कृष्‍टतम रूप है। बधाई।

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  9. सिर्फ नारीवादी सोच कहूँ तो बहुत तुच्छ होगा. समाज के सच का इससे बेहतर काव्य वर्णन नहीं हो सकता.

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  10. Rooh ko hila kar rakh diya aap ke andaz-a-bayan ne.Aap ke shikve me aise chuban hai jo ek gehre darad ka ahsas karati hai.jai ho!

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  11. प्रज्ञा जी,
    जानती हैं मर्द दुनिया पर क्यूँ राज करते हैं? क्यूंकि औरतें करने देती हैं, इसलिए!
    'पुरषों' के लिए कहा है:
    अपनी ही माँ से दुष्कर्म किया!
    कैसा तू बलात्कारी है??
    माँ के आँचल का सौदागर!
    वह! कितना बड़ा व्यापारी है!
    बेहद संवेदनशील! शर्मसार भी करती है आपकी कविता! साधुवाद!

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  12. कविता के लिए शब्दों का चयन उम्दा है .प्रतीक संश्लिष्ट एवं बिम्ब पारदर्शी हैं . अंतिम पंक्ति '' क्यों रहे अन्न की तरह छीजते '' में एक सनातन प्रश्न भी है, वेदना भी और सतही तौर पर ही सही विद्रोह भी है. जरूरत है कविता को और धारदार बनाने की, मांजने की और सोद्देश्य बनाने की.
    लक्ष्मी कान्तत्रिपाठी

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  13. खेत तुम्हारे और
    हम
    क्यों अन्न की तरह छीजते रहे .!!!
    Bahut hee marmsparshee panktiyan----
    Pragya kee,
    main Priti ji ke ghar naheen pahunch sakee---gadabad svasthya ke karan--ap logon se na mil pane ka vakayee afsos hai.shubhkamnayen.
    Poonam

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  14. भावों की सहज अभिव्यक्ति प्रशंसनीय । यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते..... ? गाने वाले देश का वास्तविक चित्र यही है । कविता अनुभूत है ।

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