सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

ब्रह्माण्ड में बैठी है
जो चुप्पी
इसे आप नहीं जानते
यह बोलती तो है
पर
अपनी आवाज़ में
जैसे बच्ची
जब मारी गयी हों
भ्रूण में.
कि उसकी आवाज़ भती है
गर्भ का
ओर छोर !
ठीक दोपहर
यह चुप्पी
आ खड़ी होती है चौपाल में
धूप लू की तरह
बरसती है
ताबड़तोड़
करती है
लहू लुहान
मारती है
जाने कितनों को
बिना हर्फों की ये जुबान!
ये चुप्पी जमती जाती है शिराओं में
जैसे
हाशिये पर
जब रुक जाता है वक़्त
इस चुप्पी की खातिर
लोग गंगा में नहाते हैं
की शायद
धुल ही जाए गर्भ का खून
पर वह धुलता नहीं
किसी तरह
चुप्पी बनाती जाती है
सन्नाटों के चक्रव्यूह !
चक्रव्यूहों के चक्रव्यूह !
इस चुप्पी को पीसता है
खेत में खडा बिजूका
जो आँधियों में
गिर गया है लगता
चुप्पी साधती है मौन
और होती है युद्ध रत
निरंतर !
यह चुप्पी आत्महंता की
होती है खतरनाक
कहती है है पूरी बात
करती है पूरा घात !

13 टिप्‍पणियां:

  1. bahut khub...chup aur maun aur khamoshi me bhi ek apni shakti hoti hai jo nazar chahe nahi aati par kisi na kisi dhratal par asar zarur chhodti hai.....

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  2. उफ़ ......... कितना दंश है आपकी रचना में ...... समाज के सामने अनगिनत प्रश्न खड़े करती शशक्त रचना .... नमन है मेरा आपकी लेखनी को ......

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  3. chuppi ki apni jaban hai yah kavita.
    krishnabihari

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  4. सुंदर कविता, गंभीर और सरोकारों से पूर्ण. बधाई !

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  5. प्रश्न खड़े करती शशक्त रचना. गम्भीर वेदना से भरी.

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  6. प्रज्ञा जी,
    आपका आना हमारे ब्लॉग पर, किसी श्रीचरण से कम नहीं है, आगंतुक कई होते हैं और सभी आदरणीय हैं, लेकिन कुछ एक मन में ही घर बना जाते हैं फिर वो आगंतुक नहीं घर के ही हो जाते हैं....और जब अपना कहा है तो फिर धन्यवाद कह कर आपको दूर नहीं करुँगी...
    आपकी कविता ....!
    देखिये न कितने धुरंधरों ने कितनी अच्छी बातें कह दीं हैं...किशोर जी, दिगंबर जी, कृष्णबिहारी जी और अमरजीत जी इत्यादि के सन्मुख मेरी कोई हैसियत ही नहीं है......आपकी कविता कितनी जीवंत, सारगर्भित और समय-सामयिक है यह तो प्रत्यक्ष है....समाज को आईना दिखाती, कितने ही prashno को जन्म देती हुई आपकी कविता...बहुत ही अच्छी लगी....

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  7. कमाल की शुरुआत ...शब्द पैने..हिये में उतर जाने वाले ..भावः प्रखर लेकिन संयोजन पक्ष कमजोर है ..शब्द का moh.. विस्तारमोह कविता को बाधित करते हैं

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  8. हाशिये पर
    जब रुक जाता है वक़्त
    इस चुप्पी की खातिर
    लोग गंगा में नहाते हैं
    की शायद
    धुल ही जाए गर्भ का खून
    पर वह धुलता नहीं
    किसी तरह
    चुप्पी बनाती जाती है
    सन्नाटों के चक्रव्यूह !
    चक्रव्यूहों के चक्रव्यूह !
    इस चुप्पी को पीसता है
    खेत में खडा बिजूका
    जो आँधियों में
    गिर गया है लगता
    चुप्पी साधती है मौन
    और होती है युद्ध रत
    निरंतर !
    यह चुप्पी आत्महंता की
    होती है खतरनाक
    कहती है है पूरी बात
    करती है पूरा घात.......

    waaqai mein khaamoshi ki bhi apni zabaan hoti hai.......... aapki lekhni ko naman.........bahut achchci lagi yeh kavita........

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  9. आपकी कविताएं..सदियों की चुप्पी का विस्पोट हैं..बेहद मार्मिक और तल्ख. मारक क्षमता किसी मिसाइल सी है..मैं शायद इसीलिए कविताओं से बचती हूं.लिखने पढने दोनों से.इन्हें पढने के बाद मैं किसी काम की नहीं रह जाती। रगों में जैसे कुछ घुस आया है.प्रज्ञा..कविताए एसी क्यों होती हैं..अब क्या करुं.

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  10. प्रज्ञा ! बहुत शोर सुनते थे पहलू में चीरा,
    तो कतरा -ए-खून न निकला !जाने कितने
    दुःख दर्दों की दस्ताने होठों में ही सिल देती
    थीं औरते ,और बाकि लोग गंगा नहा लेते
    थे !आज ब्रम्हांड से उठा लाई-चुप्पी !न सिर्फ
    चुप्पी तोडी ,समाज और साजिश रूपी धर्म
    को भी बेनकाब किया ! आज साहित्य के
    बडे लोग भी इस बात को मानते है !मेरी
    शुभ कामनाएं स्वीकार करो !
    इन चुप्पियों को तो एक न एक दिन
    चौपाल में तो आना ही है ........!

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  11. इस चुप्पी को पीसता है
    खेत में खडा बिजूका
    जो आँधियों में
    गिर गया है लगता
    चुप्पी साधती है मौन
    और होती है युद्ध रत
    निरंतर !
    यह चुप्पी आत्महंता की
    होती है खतरनाक
    कहती है है पूरी बात
    करती है पूरा घात !
    नए शब्दों और अर्थों से युक्त कविता....सुन्दर रचना.

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  12. सुंदर कविता, गंभीर और सरोकारों से पूर्ण. बधाई


    SANJAY KUMAR
    HARYANA
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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  13. सभ्यतायें पहन ,तुम होते हो वहशी ..................वाह क्या बात लिखी यार .....कमाल !!!!!!!!!

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