रविवार, 5 सितंबर 2010

एक मुकम्‍मल पूरा जंगल

पोर पोर तक
मेरे भीतर

महक रहा है
जंगल !

छोड़कर स्त्री के लिए  बनाई गई 

सभ्यता 
जो
कहती है तुम मर जाओ  अपनी इज्जत के लिए 

बनाओ 
जगह
मुकम्मल !
दिन का
रात भर 
करो
हिसाब!
ढलको मेरे लिए 
कर के सब किनारे ...
मैं हो गयी हूँ पानी,
झरना,किरण,लाली,
 जंगली सुगंध 
समा गई हूँ  हरे वन में। बन गई हूँ  वनैली  !
मिट्टी

से पानी का 
एकालाप!
वृक्षों
का  सघन फैलाव!
आकाश का
धरती से निरभ्र
भाव!
रोशनी


का
चाँद से 
अविछिन्न
बहाव !
मैं हो   गयी हूँ
अपने स्व में 

पूरी
छोड़ तुम्हारी सभ्यता 
मैं एक  वन हूँ यानी स्त्री !!

23 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ तकनीकी गड़बड़ के कारण पढ़ नहीं पा रहा हूँ..

    कृपया अपना ब्लॉग जांच लें.....

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  2. मैं हों गयी हूँ पानी
    बन गयी हूँ झरना
    पहली किरण
    सबेरे की
    लाली,
    ..........
    खूबसूरत विम्ब ...!!! रूपांतरित हो जाने की कथा पूरी । बधाई

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  3. aek jngl or uski prstuti shaandaar prstuti bs akshr thode or saaf hote to mzaa aa jata. akhtar khan akela kota rajsthan

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  4. आपकी कविताओं में जो गहरा आत्‍मीयता का स्‍पर्श और समर्पण का भाव होता है, वह लाजवाब है। यह रूमानियत जब प्रकृति के साथ एकाकार होता है तो गहरे अर्थ और बिंबों से कविता बहुआयामी रूप ले लेती है। यह ऐसी ही सुंदर रचना है। बधाई।

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  5. नए बिम्बों के साथ अपने मन के भावों को प्रस्तुत किया है ...खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  6. मन की पर्तों में छिपे भावों को करीने से सजाया है।

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  7. बहुत सुन्दर रचना,
    तथाकथित और थोपी हुई
    सभ्यता से थक कर ,ऊब कर ,
    उसके संकरे रास्ते से निकलने की
    इच्छा का मानसिक प्रतिबिम्बन ,
    सुन्दर शब्दों में !
    बहुत बधाई!

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  8. और समा गया है जंगल
    मेरे भीतर!
    जहाँ है घनेपन की सुवास !
    मिट्टी का
    और
    जब से

    तुम में आ कर मिली हूँ
    मैं
    हों गयी हूँ
    एक मुकम्मल पूरा जंगल
    दिल को छू गयी आपकी ये पँक्तियाँ। शुभकामनायें

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  9. नये बिम्बो के साथ बेहतरीन चित्रण्।

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  10. man jab sahaj dhang se apni baat kah jaaye , kavita vahan swayam astitva mein aa jati hai.mujhe sahajta achhi lagi.
    krishnabihari

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  11. खूबसूरत अभिव्यक्ति के साथ बहुत अच्छी लगी यह रचना...

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  12. दो दिन से कोशिश कर रही थी आपकी इस रचना को पढ़ने की लेकिन ना जाने क्यों ओपन ही नहीं होती थी. बहुत दिनों बाद लिखा आपने लेकिन मुकम्मल बिम्बो से परिपूर्ण और बेहतरीन लिखा.

    बधाई.

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  13. तुम में आ कर मिली हूँ
    मैं
    हों गयी हूँ
    एक मुकम्मल पूरा जंगल!!!!!!!!!!
    बहुत सुंदर बात कही प्रज्ञा !क्योंकि जंगल की आंतरिक व्यवस्था और सुरक्षा में मनमानापन नहीं है ! और यही इस कविता की जान है ! अनंत शुभकामनायें !

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  14. Kya baat hai aapki kavita mey ,ghazab ke bimb ukerey hai aapney,I am really impressed with the imagination that you put in your poem,marvellous.
    with best wishes,
    dr.bhoopendra
    jeevansandarbh.blogspot.com

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  15. bahut hi behtareen rachna..
    yun hi likhte rahein..
    ----------------------------------
    मेरे ब्लॉग पर इस मौसम में भी पतझड़ ..
    जरूर आएँ..

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  16. तुम में आ कर मिली हूँ
    मैं
    हों गयी हूँ
    एक मुकम्मल पूरा जंगल ...

    दिल के अंधेरे से अक्सर ज़ज्बात जंगल हो जाते हैं ....
    बहुत गहरे भाव हैं इस रचना में ....

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  17. मुकम्मल का मतलब ही पूरा होता है ।

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  18. सुन्दर अल्फाज और बेहतरीन भाव की रचना

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  19. सही बात है शरद जी शुक्रिया !मगर कविता के लिए कुछ नहीं कहा आपने !

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